Book Title: Deshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Author(s): R C Gupta
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 1681
________________ सम्राट भरत के युद्धोन्मादजन्य परिणामों को दृष्टिगत करते हुए भुजाओं के बल से सुशोभित बाहुबली ने हँसकर राजा भरत से कहा कि इस प्रकार से निरपराध प्राणियों के वध से हमारा और आपका क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है। उसने स्वयं एक महायोद्धा की भांति मानवीय समस्याओं के निदान के लिए अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव राजा भरत के सम्मुख रखा-- अथोवाच विहस्यवं भरतं बाहुविक्रमी । किं बराकेन लोकेन निहतेनामुनावयोः ।। यदि निःस्पन्दया दृष्ट्या भवताहं पराजितः । ततो निजित एवास्मि दृष्टियुद्धे प्रवर्त्यताम् ।। (पद्मपुराण, संधि४/७०-७१) जैन संस्कृति के पोषक राजा बाहबली द्वारा युद्धक्षेत्र में निरपराध मनुष्यों के अनावश्यक संहार से बचने के लिए अहिंसात्मक युद्ध का प्रस्ताव तर्कसंगत लगता है । चक्रवर्ती राज्य की स्थापना में संलग्न आग्रहवादी सम्राट् भरत के लिए दिग्विजय अत्यावश्यक थी। इसीलिए उसे अपने प्राणप्रिय अनुज पर आक्रमण करना पड़ा। इसके विपरीत राजा बाहुबली का उद्देश्य अपने राज्य की प्रभुसत्ता को बनाए रखना था। राजा बाहुबली ने अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए कहा था पवसन्तें परम-जिणेसरेण । जं कि पि विहज्जेवि दिण्णु तेण ।। तं अम्हहुँ सासणु सुह-णिहाणु । किउ विप्पिउ ण उ केण वि समाणु ।। सोपिहिमिहैं हउँ पोयणहों सामि । णउ देमि ण लेमि ण पासु जामि ।। दिट्ठण तेण किर कवणु कज्जु । (पउमचरिउ, सन्धि ४/४) अर्थात् दीक्षा लेते समय पिताजी ने बँटवारे में जितनी धरती मुझे दी थी, उस पर मेरा सुखद शासन है, किसी के साथ मैंने कुछ बुरा भी नहीं किया । वह भरत तो सारी धरती का स्वामी है, मैं तो केवल पोदनपुर का अधिपति हूं, न तो मैं कुछ देता हूं और न लेता हूं और न उसके पास जाता हूं। उससे भेंट करने में मेरा कौन-सा काम बनेगा? अतः आत्मविश्वास से मंडित पराक्रमी बाहुबली द्वारा पोदनपुर की अस्मिता की रक्षा के लिए स्वयं को दांव पर लगा देना असंगत नहीं है। वैसे भी बाहुबली को जैन पुराण शास्त्र में प्रथम कामदेव माना गया है। सौन्दर्यशास्त्र के रससिद्ध महापुरुष के लिए अपनी जन्मभूमि अयोध्या और अपने राज्यक्षेत्र पोदनपुर के निवासियों का युद्धोपरान्त दारुण दुःख देखा जाना सम्भव नहीं था। इसीलिए उन्होंने सम्राट भरत से विजयी होने के लिए तीन प्रकार के युद्धों का प्रस्ताव स्वयं रखा था। आचार्य विमलसूरिकृत 'पउमचरिउ' और 'आवश्यकचूणि' की गाथाओं के अनुसार भी राजा बाहुबली ने लोककल्याण की भावना से अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव रखा भणओ य बाहुबलिणा, चक्कहरो कि वहेण लायेस्स । दोण्हं पि होउ जुझं, दिट्ठीमुद्दीहिं रणमज्झे ।। (पउमचरिउ, ४, ४३) ताहे ते सव्वबलेण दो वि देसते मिलिया, ताहे बाहुबलिणा भणियं-कि अणवराहिणा लोगेण मारिएण? तुमं अहं च दुयगा जुज्झामो। (आवश्यकचूणि, पृ० २१०) सम्राट भरत एवं राजा बाहुबली दोनों को अपने अप्रतिम शौर्य पर अगाध विश्वास था। इसीलिए दोनों चरमशरीरी महायोद्धा तीन प्रकार के प्रस्तावित युद्ध में अपनी शक्ति के परीक्षण के लिए सोत्साह मैदान में उतर गए। तीर्थकर ऋषभदेव के इन दोनों बलशाली पुत्रों को युद्धक्षेत्र में देखकर आचार्य जिनसेन को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे निषध और नीलपर्वत पास-पास आ गए हों। उन्होंने युद्धोत्सुक बाहुबली एवं भरत की तुलना क्रमशः ऊंचे जम्बूवृक्ष एवं चूलिकासहित गिरिराज सुमेरु से की है। विजयलक्ष्मी के आकांक्षी सम्राट् भरत एवं बाहुबली के मध्य पूर्व निर्धारित तीनों युद्ध हुए। जैन पुराणकारों ने इन दोनों महापुरुषों के पराक्रम का अद्भुत वर्णन किया है। इनके युद्ध के प्रसंग में जैन काव्यकारों ने लौकिक एवं अलौकिक अनेक उपमानों का सुन्दर संयोजन किया है। सम्राट् भरत एवं राजा बाहुबली के दृष्टियुद्ध का विवरण देते हुए महाकवि स्वयम्भू ने लिखा है अवलोइउ भरहें पढमु माई । कइलासे कञ्चण-सइलु णाई।। असिय-सियायम्व विहाइ दिट्ठि। णं कुवलय-कमल-रविन्द-विट्ठि।। पुणु जोइउ बाहुबलीसरेण । सरे कुमुय-सण्डु णं दिणयरेण ।। अवरामुह-हेट्ठामुह-मुहाई। णं वर-वहु-वयण-सरोरुहाइँ ।। उवरिल्लियएँ विसालएँ भिउडि-करालएँ हेट्ठिम दिट्टि परज्जिय। णं णव-जोव्वणइत्ती चञ्चल-चित्ती कुलवहु इज्जएँ तज्जिय।। (पउमचरिउ, सन्धि ४/8) गोम्मटेश दिग्दर्शन ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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