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जन-जन की श्रद्धा के प्रतीक भगवान गोम्मटेश
-सुमतप्रसाद जैन
जैन धर्म के आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव के परमपराक्रमी पुत्र, पोदनपुर नरेश, प्रथम कामदेव, तद्भव मोक्षगामी बाहुबली की दक्षिण भारत में गोम्मटेश के रूप में वन्दना की जाती है । भगवान् श्री ऋषभदेव की रानी यशस्वती ने भरत आदि सौ श्रेष्ठ पुत्र एवं कन्यारत्न ब्राह्मी को जन्म दिया । दूसरी रानी सुनन्दा से सुन्दरी नामक कन्या एवं पुत्र बाहुबली का जन्म हुआ ! सुन्दरी और बाहुबली को पाकर रानी सुनन्दा ऐसी सुशोभित हुई जैसे पूर्व दिशा प्रभा के साथ-साथ सूर्य को पाकर सुशोभित होती है। सुन्दर एवं हृष्ट-पुष्ट बालक बाहुबली को देखकर नगर-जन मुग्ध हो जाते थे । नगर की स्त्रियाँ उसे मनोभव, मनोज मनोभू, मन्मथ, अंगज, मदन आदि नामों से पुकारती थीं। अष्टमी के चन्द्रमा के समान बाहुबली के सुन्दर एवं विस्तृत ललाट को देखकर ऐसा लगता था मानो ब्रह्मा ने राज्यपट्ट को बांधने के लिए ही उसे इतना विस्तृत बनाया है। बाहुबली के वक्षस्थल पर पांच सौ चार लड़ियों से गुम्फित विजय छन्द हार इस प्रकार शोभायमान होता था जैसे विशाल मरकत मणि पर्वत पर असंख्य निर्झर प्रवाहित हो रहे हों।
भगवान् ऋषभदेव ने स्वयं अपने सभी पुत्र-पुत्रियों को सभी प्रकार की विद्याओं का अभ्यास एवं कलाओं का परिज्ञान कराया। कुमार बाहुबली को उन्होंने विशेष कामनीति, स्त्री-पुरुषों के लक्षण, आयुर्वेद, धनुर्वेद, घोड़ा-हाथी आदि के लक्षण जानने के तन्त्र और रत्न परीक्षा आदि के शास्त्रों में निपुण बनाया । सुन्दर वस्त्राभूषणों से सज्जित, विद्याध्ययन में तल्लीन ऋषभ-सन्तति को देखकर पुरजन पुलकित हो उठते थे । आचार्य जिनसेन ने इन पुत्र-पुत्रियों से शोभायमान भगवान् ऋषभदेव की तुलना ज्योतिषी देवों के समूह से घिरे हुए ऊंचे मेरुपर्वत से
उन सब राजकुमारों में तेजस्वी भरत सूर्य के समान सुशोभित होते थे और बाहुबली चन्द्रमा के समान शेष राजपुत्र ग्रह, नक्षत्र तथा तारागण के समान शोभायमान होते थे । ब्राह्मी दीप्ति के समान और सुन्दरी चांदनी के समान कान्ति बिखेरती थीं।
__ भगवान् ऋषभदेव को कालान्तर में नीलांजना अप्सरा का नृत्य देखते-देखते संसार से वैराग्य हो गया। उन्होंने महाभिनिष्क्रमण के समय अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत का राज्याभिषेक कराकर युवराज पद पर बाहुबली को प्रतिष्ठित किया। शेष पुत्रों के लिए भी उन्होंने विशाल पृथ्वी का विभाजन कर दिया। राजा भरत ने सम्पूर्ण पृथ्वीमंडल को एकछत्र शासन के अन्तर्गत संगठित करने की भावना से दिग्विजय का अभियान किया। उन्होंने अपने परम पौरुष से हिमवान् पर्वत से लेकर पूर्व दिशा के समुद्र तक और दक्षिण समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र तक समस्त पृथ्वी को वश में कर चक्रवर्ती राज्य की प्रस्थापना की।
साठ हजार वर्ष की विजय यात्रा के उपरान्त सम्राट् भरत ने जब अपनी राजधानी अयोध्या नगरी में प्रवेश किया, उस समय सेना की अग्रिम पंक्ति में निर्बाध रूप से गतिशील चक्ररत्न सहसा रुक गया। सम्राट् भरत इस घटना से विस्मित हो गए। उन्होंने अपने पुरोहित एवं मन्त्रियों से प्रश्न किया कि अब क्या जीतना शेष रह गया है ? निमित्तज्ञानी पुरोहित ने युक्तिपूर्वक निवेदन किया कि आपके भाइयों ने अभी तक आपकी आधीनता स्वीकार नहीं की है।।
चक्रवर्ती साम्राज्य की स्थापना में संलग्न महाबाहु भरत को यह विश्वास था कि उनके सहोदर उनकी आधीनता को स्वीकार कर लेंगे। किन्तु स्वतन्त्रता प्रेमी सहोदरों द्वारा भरत को इस भूतल का एकमात्र अधिपति न मान पाने के कारण सम्राट् भरत को क्रोध हो आया। उनके मन में यह विश्वास हो गया कि यद्यपि उनके सौ भाई हैं, किन्तु वे सभी स्वयं को अवध्य मानकर प्रणाम करने और मेरी आधीनता मानने से विमुख हो रहे हैं। निमित्तज्ञानी पुरोहित की मन्त्रणा से अनुज बन्धुओं को अनुकूल बनाने के लिए विशेष दूत भेजे गए। बाहुबली के अतिरिक्त सम्राट भरत के शेष अन्य सहोदरों ने पिता के न होने पर बड़ा भाई ही छोटे भाइयों के द्वारा पूज्य होता है, ऐसा मानकर अपने पिताश्री से मार्गदर्शन लेने का निर्णय किया। उन्होंने कैलाश पर्वत पर स्थित जगतवन्दनीय भगवान् ऋषभदेव के पावन चरणों की वन्दना के पश्चात् उनसे निवेदन किया
त्वत्प्रणामानुरक्तानां त्वत्प्रसादाभिकाङक्षिणाम् । त्वद्वचःकिंकराणां नो यद्वा तद्वाऽस्तु नापरम् ।। (आदिपुराण, पर्व ३४/१०२) गोम्मटेश दिग्दर्शन
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