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प्रभु परमात्मा के गुणों का चिन्तन-मनन शान्तिपूर्वक हो सके और आराधक भगवान् की आर उन्मुख हो सके । यह भावना मन्दिर निर्माण की शैली से जागृत की जाती है। गर्भगृह, शुकनासिका, मुखमण्डप आदि वातावरण को शान्ति और गरिमा प्रदान करते हैं ।]
राजस्थान में राणकपुर का त्रैलोक्यदीपक तीर्थाधिराज, श्रीचतुर्मुख युगादीश्वर विहार जैन कला और धार्मिक भावना का सजीव चित्र है । भारतीय स्थापत्य कला का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक यह जिनालय गर्व से अपना सिर ऊंचा कर पन्द्रहवीं शताब्दी की विकसित कला को प्रकट करता है । इस महामन्दिर को देखने के लिए हजारों की संख्या में भारतीय और विदेशी पर्यटक प्रतिवर्ष पहुंचते हैं । पश्चिम भारत के शिखर मण्डित मध्यशैली' (मिटिल स्टाइल) में निर्मित जैन मन्दिरों में इसका मुख्य स्थान है।
यह स्थान मेवाड़ में अरावली की सुरम्य उपत्यकाओं के बीच सादड़ी से छह मील दक्षिण में है । इसका निकटतम रेलवे स्टेशन फालना है जो दिल्ली अहमदाबाद मेन रेलवे लाइन पर है। राणकपुर के इस प्रसिद्ध जैन मन्दिर की प्रतिष्ठापना सन् १४३६ में हुई। मन्दिर का निर्माण जैन-धर्मानुयायी धरणाक पोरवाड़ के आदेश से देपाक नामक वास्तुविद् के मार्गदर्शन में हुआ मन्दिर के सुखमण्डप के प्रवेशद्वार पर स्थित स्तम्भ पर खुदे हुए अभिलेख से यह जानकारी मिलती है कि इस भव्य चौमुखे मन्दिर के निर्माण में कला और स्थापत्य के महान् आश्रयदाता राणा कुम्भा का महान् योग रहा है। राणा कुम्भा वि० सं० १४६० में राजसिंहासन पर समासीन हुए । इनके राज्यकाल में शिल्पकला की बहुत उन्नति हुई । चित्तौड़ का कीर्तिस्तम्भ, जयस्तम्भ, राणकपुर का यह मन्दिर और आबू का कुम्भाशाम राणा की कलाप्रियता के श्रेष्ठ प्रतीक हैं ।
"प्राग्वाटवंशावतंस संघपति मागण सुत सं० कुरपाल
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कि 'राणपुर' नाम राणा कुम्भा के नाम पर रखा गया है । 'राण' राणा का और 'पुर' पोरवाड़ का संक्षिप्त रूप है कर ‘राणपुर' नाम रखा गया है।' राणपुर शब्द का प्रयोग और उच्चारण ही शुद्ध है परन्तु वही अब लोक भाषा में होकर ख्यात हो गया है।
" शिलालेख में 'राणपुर' नाम दिया हुआ है जिससे स्पष्ट है
दोनों नामों को जोड़ राणकपुर या रणकपुर
यह मन्दिर ३७१६ वर्गमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। इसमें २९ बड़े कमरे और ४२० स्तम्भ है। इससे प्रकट होता है कि इस मन्दिर की योजना यही महत्त्वाकांक्षी रही है। मन्दिर 'वं लोक्यदीपक' नाम से भी जाना जाता है। अधुना राणकपुर में प्रतिवर्ष दो मेले भरते हैं- एक चैत्र कृष्णा दशमी के दिन और दूसरा आश्विन शुक्ला त्रयोदशी के दिन | धरणाक और उनके भाई रत्ना के वंशज आज भी मेले के दिन केशर और इत्र से पूजा करना, आरती उतारना और ध्वजारोहण करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं ।
मन्दिर में और भी शिलालेख हैं; उनसे इसके निर्माता का और जीर्णोद्वार काल का पता तो चलता है परन्तु इसकी नींव कब पड़ी और इसे बनने में कितने वर्ष लगे — इस बात की सही-सही जानकारी अद्यावधि नहीं हो सकी है। ऐसी जनश्रुति है कि मन्दिर बनने में चालीस वर्ष पूरे हुए। मन्दिर के निर्माण में कितनी धनराशि खर्च हुई, इस बात का उल्लेख एक भी शिलालेख में नहीं है। राजस्थान के ख्यातिलब्ध इतिहासकार कर्नल टॉड ने अपनी पुस्तक 'एनल्स एण्ड एण्टीक्वीटिज ऑफ राजस्थान' में लिखा है कि यह मन्दिर लाखों रुपयों का है और इसके निर्माण में राणा कुम्भा ने अपने राजकोष से ८०,००० रुपये दिये थे, फिर चन्दा एकत्र कर इसका निर्माण कार्य पूरा किया गया था । परन्तु इस कथन का आधार क्या है, इस बात का उल्लेख टॉड महोदय ने नहीं किया। उनकी यह बात सामान्यतः मानने. योग्य नहीं दीखती, मनगढन्त-सी लगती है क्योंकि स्वयं टॉड साहब ने इस मन्दिर के दर्शन एक बार भी नहीं किए थे।
मन्दिर के शिलालेखों से पता चलता है कि इसमें समय-समय पर जैन श्रावकों द्वारा जीर्णोद्धार के कार्य सम्पन्न कराये गये । पहले मन्दिर आज की तरह पूर्ण स्थिति में नहीं था । मन्दिर में अलग-अलग स्थानों पर धन्ना और रत्ना के वंशजों ने तथा अन्य जैन श्रावकों ने भिन्न-भिन्न कालों में तीर्थंकरों की मूर्तियों का निर्माण और उनकी प्रतिष्ठापना का पुनीत कार्य अपने समकालीन जैनाचार्यो द्वारा करवाया था । निर्माण, प्रतिष्ठा और जीर्णोद्धार का कार्य लगभग वि० सं० १९०० तक चलता रहा। जीर्णोद्धार का काम तो आज भी चल ही रहा है ।
इस चतुर्मुखी मन्दिर के बहिर्भाग में दो तरह के पत्थरों का उपयोग हुआ है प पर सेवाड़ी का पत्थर लगा है तो दीवारों पर सोनाणा का पत्थर । चतुर्मुखी मूलनायक प्रतिमा के अतिरिक्त शेष सभी मूर्तियां सोनाणा के पत्थर की ही बनी हैं। मन्दिर का उत्तुङ्ग शिखर ईंटों से बनाया गया है। चतुर्मुखी से मतलब है--चार मूर्तियाँ चारों दिशाओं में मुख किये हुए, एक दूसरी के पीठ से सटी । ये चारों मूर्तियाँ मन्दिर के मूलनायक आद्य ( प्रथम ) तीर्थंकर भगवान् आदिनाथ की हैं। सफेद पत्थर से बनी हुई हैं। प्रत्येक मतिः
१. ऐसी प्रसिद्धि है कि मन्दिर के लिए जमीन इसी शर्त पर दी गई थी कि इसका नाम राणा के नाम पर रखा जाए। जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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