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गोम्मटेश दिग्दर्शन
भगवान् बाहुबली अथवा गोम्मटेश के स्मरण मात्र से तीर्थ क्षेत्र श्रवणबेलगोल का गौरवमय अतीत अनायास ही सजीव हो उठता है । इस महान् आध्यात्मिक केन्द्र की संरचना में जिनागम के सूर्य, चौदहपूर्वधारी, अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता अन्तिम तवी आचार्य वा से लेकर श्री देशभूषण जी तक की आचार्य परम्परा का अनवरत योग रहा है। इसी कारण प्रस्तुत ग्रंथ में 'गोम्मटेश दिग्दर्शन' की संयोजना सकारण की गई है।
सम्पादकीय
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी की साधना के क्रमिक विकास में श्रवणबेलगोल का अप्रतिम योग रहा है। संयोगवश प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रंथ की योजना का प्रारम्भिक स्वरूप निर्धारित करते समय जैन समाज में श्रवणबेलगोल स्थित भगवान् बाहुबली की एकल पाषाण निर्मित विश्वप्रसिद्ध प्रतिमा के सहस्राब्दी प्रतिष्ठा समारोह एवं महामस्तकाभिषेक महोत्सव की योजना पर विचार-विनिमय हो रहा था।
उत्तरभारत में द्वादशवर्षीय भीषण अकाल का पूर्वाभास पाकर आचार्य भद्रबाहु अपने बारह हजार शिष्यों के साथ कटवत्र पर्वत ( कलबप्पु) पधारे थे । आचार्य भद्रबाहु ने अपने अन्त समय का अनुमान कर संघस्थ मुनियों को धर्म प्रचार के निमित्त चौल, पाण्ड्य आदि प्रदेशों की ओर जाने का आदेश दिया और स्वयं अपने शिष्य मुनि चन्द्रगुप्त (मुनि दीक्षा से पूर्व मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त ) के साथ यहाँ रह गए। आचार्य भद्र बाहु ने इसी क्षेत्र पर समाधिमरण किया। चन्द्रगिरि पर स्थित भद्रवाह गुफा में उनके चरण आज भी विद्यमान है और ढालु आवक-आविकाएँ शताब्दियों से उनका पूजन करते चले आए हैं। गुफा में पाषाण पर उत्कीर्ण लेख 'श्री भद्रबाहु स्वामिय पादं जिनचन्द्र प्रणमता' अब उपलब्ध नहीं है ।
सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य की तपस्या, समाधिमरण अथवा उनके वंशजों द्वारा कराए गए निर्माण के कारण कटवत्र पर्वत का नाम चन्द्रगिरि पड़ गया है। आचार्य भद्रबाहु एवं मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त के समाधिपूर्वक आत्मोत्सर्ग के संबंध में अनेक साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त होते हैं। सेरिंगपट्टम से प्राप्त दो शिलालेखों में उल्लेख है कि कलमण्णु शिखर (चन्द्रगिरि) पर महामुनि भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के चरण चिह्न हैं। ये शिलालेख लगभग शक सं० ८२२ के हैं । श्रवणबेलगोल से प्राप्त एक अभिलेख शक सं० ५७२ (६५० ई०) में कहा गया है कि जो जैनधर्म भद्रबाहू और चन्द्रगुप्त गुनीन्द्र के तेज से भारी समृद्धि को प्राप्त हुआ था उसके किचित् क्षीण हो जाने पर शान्तिसेन मुनि ने उसे पुनःस्थापित किया। जैन इतिहास में वनवेसगोल को सल्लेखना व्रत से श्री मंडित भूमि के रूप में घड़ा की दृष्टि से देखा जाता है। आचार्य भद्रबाहु के समाधिमरण के उपरान्त जैन साधुओं में सल्लेखना की पद्धति अत्यधिक लोकप्रिय रही होगी। श्रवणबेलगोल से प्राप्त अभिलेखों में से लगभग १०० अभिलेख समाधिमरण से सम्बन्धित है जिनमें से अधिकांश भगवान गोम्मेश्वर की प्रतिमा के निर्माण से पूर्व के हैं। अवणबेलगोल स्थित चन्द्रगिरि, इन्द्रगिरि एवं निकटवर्ती क्षेत्र में मन्दिरों की बहुलता को दृष्टिगत करते हुए इस क्षेत्र को मन्दिरों की नगरी ही कहा जा सकता है। इतिहासज्ञों का अनुमान है कि मौर्य सम्राट् बिन्दुसार ने दक्षिण विजय अभियान के अन्तर्गत अपने कुल गुरु भद्रबाहु के समाधिस्थान एवं अपने पिता मुनि चन्द्रगुप्त की तपोभूमि के दर्शन किए थे और श्रद्धास्वरूप जैन मन्दिरों का निर्माण भी करवाया था ।
श्रवणबेलगोल के प्रारम्भिक जैन मन्दिर द्रविड़ शैली में बने हुए हैं। परवर्ती काल में अन्य शैलियों के अनुकरण पर भी मन्दिरों का निर्माण हुआ है। महान् सेनापति गंगराज द्वारा निर्मित शान्तिनाथ वस्ति की बाहरी दीवारों पर तीर्थंकर, यक्ष, यक्षिणी, सरस्वती, मन्मथ, मोहिनी, नृत्यांगना, गायक, वादवाही आदि के मनमोहक चित्र है। धवणबेलगोल के श्रृंगार में प्रायः दक्षिण भारत के सभी प्रमुख राजवंशों एवं जनसामान्य की रुचि रही है। इसीलिए यहाँ के मन्दिरों में वैविध्यपूर्ण शैलियों के दर्शन होते हैं। विद्वानों की धारणा है कि बवणबेलगोल कर्नाटक के विभिन्न भागों में पायी जाने वाली विभिन्न शैलियों का अपूर्व संग्रहालय है। वास्तुकला की चालुक्य विजयनगर और होयसल शैली वाली मूर्तिकला का वहाँ अद्भुत संयोग है ।
प्रकृति की रम्य गोद में स्थापित श्रवणबेलगोल की तपोभूमि समर्थ आचार्यों, भट्टारकों एवं विद्वानों के कृपाप्रसाद से ज्ञानाराधना का प्रमुख केन्द्र बन गई । इतिहासमनीषी डा० ज्योतिप्रसाद ने इस क्षेत्र की विशिष्टताओं का निरूपण करते हुए कहा है- "जैन साहित्य एवं शिलालेखों गोम्मटेश दिग्दर्शन
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