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आचार्य सोमप्रभ का रचनाकाल ई० सन् १९९५ माना गया है। ये गुजरात के चालुक्य सम्राट कुमारपाल एवं आचाय हेमचन्द्र के समकालीन थे। सोमप्रभ ने प्रस्तुत रचना का प्रणयन उस समय किया था जब वह प्राग्वाटवंशी कविराजा श्रीपाल के पुत्र कवि सिद्धपाल के यहां निवास कर रहा था ।' कवि ने इस ग्रन्थ की रचना नेमिनाग के पुत्र शेठ अभयकुमार के हरिश्चन्द्र एवं श्रीदेवी नामक पुत्र एवं पुत्री के धर्मलाभार्थ की थी। इस ग्रन्थ के निर्माण के समय आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने तीन शिष्यों द्वारा इसे सुना था। कवि सोमप्रभ की अन्य रचनाओं में सुमतिनाथचरित, सूक्तिमुक्तावलि (अपरनाम सिन्दुरप्रकर) एवं शतार्थकाव्य उपलब्ध एवं प्रकाशित हैं । इनमें से कुमारपाल प्रतिबोध प्रस्ताव शैली में लिखा गया है । इसमें कुल ५ प्रस्ताव (अध्याय) हैं तथा कुल लगभग ६७ कथानक लिखे गए हैं जो विविध नैतिक आदर्शों से सम्बन्धित हैं।
रस परम्परा के साहित्य में जितनी रचनाएं उपलब्ध हैं उनमें भरतेश्वर बाहुबली रास' सर्वप्रथम एवं अति विस्तृत रचना मानी गई है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह सन्धिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की कृति है तथा लगभग १३वीं सदी से १५ वीं सदी के मध्य लिखे गए रास-साहित्य की एक प्रतिनिधि रचना है।
प्रस्तुत रास-काव्य की बाहुबली कथा का प्रारम्भ अयोध्यानगरी के सम्राट ऋषभ के गुण वर्णनों से होता है। उनकी समंगला एवं सुनन्दा नामक रानियों से क्रमशः भरत एवं बाहुबली का जन्म होता है। योग्य होने पर भरत को अयोध्या तथा बाहुबली को तक्षशिला का राज्य मिलता है। ऋषभ को जिस दिन कैवल्य की प्राप्ति होती है उसी दिन भरत को उनकी आयुधशाला में दिव्य चक्ररत्न की उपलब्धि होती है। उसके बल से वे दिग्विजय करते हैं। वापिस लौटते समय जब वह अयोध्या के बाहर रुक जाता है तभी उन्हें विदित होता है कि बाहुबली को जीते बिना उनकी सफलता अपूर्ण है। यह देखकर वे अपने दूत को भेजकर बाहुबली को अपनी अधीनता स्वीकार करने का सन्देश भेजते हैं। बाहुबली के द्वारा अस्वीकार किए जाने पर दोनों भाइयों में युद्ध हो जाता है और वह लगातार १३ दिनों तक चलता है। दोनों पक्षों की अपार सेना की क्षति देखकर तथा अवशिष्ट सैन्य क्षति-ग्रस्त न हो इस उद्देश्य से वे नेत्रयद्ध, जलयुद्ध और मल्लयुद्ध करते हैं । भरत इन युद्धों में बाहुबली से पराजित होकर उनपर चक्र चला देते हैं। इस मर्यादा विहीन कार्य से भी यद्यपि बाहुबली का कुछ बिगड़ता नहीं फिर भी उन्हें भरत के इस अनैतिक कार्य पर बड़ा दुख हुआ और वे वैराग्य से भरकर दीक्षित हो गए। भरत ने शासन सम्हाला और यशार्जन किया। यहीं पर कथा का अन्त हो जाता है।
यह रचना वीर रस प्रधान है किन्तु उसका अवसान शान्त रस में हुआ है भयानक नरसंहार के बाद जब दोनों भाइयों में नेत्र यद्ध, जलयुद्ध एवं मल्लयुद्ध होता है तब उसमें भरत की पराजय होती है और वह आगबबूला होकर बाहुबली पर चक्ररत्न से आक्रमण कर देते हैं । भौतिक सम्पदा प्राप्ति के लिए भरत के इस अनैतिक और अमर्यादित कार्य को देखकर बाहुबली को वैराग्य हो जाता है और वे कहते हैं
"धिक् धिक् ए एय संसार धिक् धि राणिम राज रिद्धि ।
एवडु ए जीव संहार की धड़ कुण विरोध वसि ॥"
वीर रस प्रधान उक्त काव्य के उक्त प्रसंग में समस्त आलम्बन शान्ति में परिवर्तित हो जाते हैं। इस सहसा परिवर्तन की निर्दोष अभिव्यक्ति कवि की अपनी विशेषता है । स्वपराजय जन्य तिरस्कार के कारण भरत का अपने सहोदर पर धर्मयुद्ध के स्थान पर चक्र का प्रहार घोर अनैतिक कार्य था। इसी अनैतिक कार्य ने बाहुबली के हृदय में शम की सृष्टि की और फलस्वरूप दे दीक्षित हो जाते हैं। यह देख भरत के नेत्र डबडबा उठते हैं और वे उनके चरणों में गिर जाते हैं । यथा
"सिरिवरि ए लोंच करेउ कासगि रहीउ बाहबले।
अंसूइ आँखि भरेउ तस पणमए भरह भडो ॥"
प्रस्तुत काव्य में प्रयुक्त विविध अलंकारों की छटा प्रसंगानुकल विविध छन्द योजना, कथनोपकथन एवं मार्मिक उक्तियों ने इसे एक आदर्श काव्य की कोटि में ला खड़ा किया है। तत्कालीन प्रचलित भाषाओं का तो इसे संग्रहालय माना जा सकता है। इस
१.२. दे. वही अंग्रेजी-प्रस्तावना पु० ३. ३-४. दे० कुमारपाल प्रतिबोध-प्रग्रेजी प्रस्तावना पृ. ३.
५. दे. मादिकाल के प्रज्ञात हिन्दी रास-काप-पु० ३७-५४. ६-७. दे. भरतेश्वर बाहुबलीरास-पञ्च सं १९१, १६३,
गोम्मटेश दिग्दर्शन
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