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महाकवि पुष्पदन्त ने अपने अपभ्रंश महापुराण' में नाभेय चरित प्रकरण" में बाहुबली के चरित का अंकन मर्मस्पर्शी शैली में किया है । उसकी पांचवीं सन्धि में जन्म वर्णन करके कवि ने १६वीं से १८ वीं सन्धि तक बाहुबली का वर्णन जिनसेन के आदिपुराण के अनुसार ही किया है। पुष्पदन्त को वर्णनशैली जिनसेन की वर्णन डॉली से अधिक सजीव एवं सरस बन पड़ी है। पुष्पदन्त ने भरत दूत एवं बाहुबली के माध्यम से जो मर्मस्पर्शी संवाद प्रस्तुत किए हैं तथा सैन्य संगठन, शैन्य संचालन तथा उनके पारस्परिक युद्धों के समय जिन कल्पनाओं एवं मनोभावों के चित्रण किए गए हैं वे उनके बाहुबली चरित को निश्चय ही एक विशिष्ट काव्य- कोटि में प्रतिष्ठित कर देते हैं । '
महाकवि पुष्पदन्त कहां के निवासी थे, इस विषय में विद्वान अभी खोज कर रहे हैं। बहुत सम्भव है कि वे विदर्भ अथवा कुन्तलदेश के निवासी रहे हों। उनके पिता का नाम केशवभट्ट एवं माता का नाम मुग्धादेवी था । उनका गोत्र कश्यप था । वे ब्राह्मण थे किन्तु जैन सिद्धान्तों से प्रभावित होकर बाद में जैन धर्मानुयायी हो गए। वे जन्मजात प्रखर प्रतिभा के धनी थे । वे स्वभाव से अत्यन्त स्वाभिमानी थे और काव्य के क्षेत्र में तो उन्होंने अपने को काम्यपिणाच अभिमानमेरु, कविकुलतिलक जैसे विशेषणों से अभिहित किया है । उनके स्वाभिमान का एक ही उदाहरण पर्याप्त है कि वीरशैव राजा के दरबार में जब उनका कुछ अपमान हो गया तो वे अपनी गृहस्थी को थैले में डालकर चुपचाप चले आए थे और जंगल में विश्राम करते समय जब-जब किसी ने उनसे नगर मैं चलने का आग्रह किया तब उन्होंने उत्तर दिया था कि- "पर्वत की कन्दरा में घास-फूस खा लेना अच्छा, किन्तु दुर्जनों के बीच में रहना अच्छा नहीं । माँ की कोख से जन्म लेते ही मर जाना अच्छा किन्तु सबेरे-सबेरे दुष्ट राजा का मुख देखना अच्छा नहीं ।' कवि की कुल मिलाकर तीन रचनाएं उपलब्ध हैं—णायकुमारचरिउ, जसहर चरिउ, ' एवं महापुराण अथवा तिर्साट्टमहापुरिस गुणालंकारु । ये तीनों ही अपभ्रंश भाषा की अमूल्य कृतियाँ मानी जाती हैं । कवि पुष्पदन्त का समय सन् ९६५ ई० के लगभग माना गया है ।" जिनेश्वर सूरि ने अपने कथाकोषप्रकरण की ७वीं गाथा की व्याख्या के रूप में "भरतकथानकम् " प्रसंग में बाहुबली के afta का अंकन किया है। उसमें ऋषभदेव की दूसरी पत्नी सुनन्दा से बाहुबली एवं सुन्दरी को युगल रूप में बताया गया है ।" शेष कथानक पूर्व ग्रन्थों के अनुसार ही लिखा गया है । किन्तु शैली कवि की अपनी है । उसमें सरसता एवं जीवन्तता विद्यमान है । आचार्य जिनेश्वरसूरि वर्धमानसूर के शिष्य थे। उन्होंने वि० सं० ११०८ में उक्त ग्रन्थ की रचना की थी। लेखक अपने समय का एक अत्यन्त क्रान्तिकारी कवि के रूप में प्रसिद्ध था । जिनेश्वरसूरि की अन्य प्रधान कृतियाँ हैं---प्रमालक्ष्म, लीलावतोकथा षट्स्थानक प्रकरण एवं पंचलिंगीप्रकरण । उक्त कथाकोशप्रकरण, भारतीय कथा साहित्य के विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं ।
आचार्य सोमप्रभ कृत कुमारपाल तिबोध" के "राजपिण्डे भरतवकिकथा" नामक प्रकरण की लगभग २० गायाओं में बाहुबली का प्रसंग आया है । इसका कथानक उस घटना से प्रारम्भ होता है जब भरतचत्रि दिग्विजय के बाद अयोध्या लौटते हैं तथा चक्ररत्न के नगर में प्रवेश करने पर वे इसका कारण अमात्य से पूछते हैं तब अमात्य उन्हें कहता है—
'किंतु कणिट्टो भाया तुज्झ सुणंदाइ नंदणो अत्थि ।
बाहुबलित्ति पसिद्ध विवक्ख-बल-दलण बाहुबलो ॥'
बाहुबली कथानक उक्त गाथा से ही प्रारम्भ होता है और भारत उनसे दृष्टि गिरा, बाहु, मुट्ठी एवं सही से युद्ध में पराजित होकर बाहुबली के वध हेतु अपना चक छोड़ देते हैं किन्तु सगोत्री होने से चक्र उन्हें क्षतिग्रस्त किए बिना ही वापिस लौट आता है । बाहुबली भरत की अपेक्षा अधिक समर्थ होने पर भी चक्र का प्रत्युत्तर न देकर संसार की विचित्र गति से निराश होकर दीक्षित हो जाते हैं और यहीं पर बाहुबली कथा समाप्त हो जाती है।"
१.
भारतीय ज्ञानपीठ (दिल्ली १९७९ ई०) से प्रकाशित.
२.
दे० महापुराण १६-१८ सन्धियाँ
३. दे० जैन साहित्य और इतिहास - नाथूरामप्रेमी (बम्बई, १९५६ ) पृ० २२५-२३५.
४. भारतीय ज्ञानपीठ (दिल्ली १६७२ ) से प्रकाशित
५. भारतीय ज्ञानपीठ (दिल्ली, १६७२) से प्रकाशित.
६. दे० णायकुमार चरिउ की प्रस्तावना - पृ० १८.
७८. सिंधी जैन सीरीज (ग्रन्थांक ११) (बम्बई १९४६ ) से प्रकाशित दे० भरत कथानकम् पृ० ५०-५५.
९ १० दे० वही प्रस्तावना पू० 2.
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११. दे० कथाकोषप्रकरण प्रस्तावना पृ० ४३.
१२. Govt Central Library, Baroda (1920 A.D.) से प्रकाशित.
१३-१४. दे० कुमारपाल प्रतिवोध तृतीय प्रस्ताव पू० २१६-१७.
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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