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सन्तप्त मानवता के लिए एक वरदान है । पृथ्वी और आकाश के मध्य राग-द्वेष के बन्धनों से मुक्त होकर विचरण करने वाली यह देवोपम प्रतिमा भौतिकता से ग्रस्त संसारी प्राणियों को जीवन की निर्लिप्तता का अमर सन्देश दे रही है।
भारतीय कला एवं संस्कृति की उपासिका श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अपने इतिहास प्रेमी पिता श्री जवाहरलाल नेहरू के साथ ७ सितम्बर, १९५१ को इस अलौकिक मूर्ति के सर्वप्रथम दर्शन किए। इस नयनाभिराम प्रतिमा में अन्तनिहित मूल्यों ने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया। भगवान् गोम्मटेश के महामस्तकाभिषेक के अवसर पर जनमंगल कलश का प्रत्यावर्तन करते हुए २६ सितम्बर, १९८० को एक विशाल जनसभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने भगवान् गोम्मटेश के विग्रह को 'शानदार' एवं 'सुन्दर मूर्ति' का उपमान दिया। उन्होंने अपने भाषण में कहा-"उस मूर्ति को देखकर एक रोशनी दिल में आती है, एक शान्ति आती है । एक नई प्रकार की भावना हृदय में उत्पन्न होती है।" भगवान् बाहुबली की कलात्मक मूर्ति के सौन्दर्य का विवेचन करते हुए वह भावविह वल हो गई थीं। कल्पनालोक में विचरण करते हुए उन्होंने दार्शनिक शब्दावली में कहा था-"उस मूर्ति की प्रशंसा बहुत लोगों ने की है। कवियों ने की है। मैं उसके लिए कहां से शब्द ढूँढं ? मेरी तो यह आशा है कि किसी दिन आप सब जा सकेंगे, उसके दर्शन करेंगे।"
एक दिगम्बर मुनि के रूप में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी अपने दीक्षा गुरु तपोनिधि श्री जयसागर जी के साथ सन् १९३७ में श्रवणबेलगोल पधारे थे। भगवान् बाहुबली की विशाल एवं मनोज्ञ प्रतिमा ने आपको अत्यधिक प्रभावित किया था। निकटवर्ती पहाड़ियों के जैन वैभव तथा समर्थ आचार्यों एवं मुनियों की सानधास्थली (समाधियों) ने आपके मानस को आन्दोलित कर दिया। आचार्यश्री जयसागर जी की प्रेरणा से श्री देशभूषण जी ने श्रवणबेलगोल को अपनी साधनास्थली बना लिया।
आचार्यश्री पर्वत की शिला पर स्थित भगवान् बाहुबली की कलात्मक प्रतिमा के अलौकिक सौन्दर्य का घंटों तक नियमित अवलोकन किया करते थे। उस समय दूर-दूर तक फैले हुए नीले आकाश के पर्दे में आचार्यश्री को चतुर्दिक भगवान् के चरणों का शुभ्र प्रसार ही दिखलाई पड़ता था। अपनी साधना के प्रारम्भिक वर्षों में आपने इसी तीर्थ पर भारतीय भाषाओं का गहन अध्ययन किया। इसलिए इन्द्रगिरि पर स्थित भगवान् गोम्मटेश की लोकोत्तर प्रतिमा के चरणों में जन-जन की भावनाओं का महाग्रं समर्पित करने की भावना से प्रस्तुत ग्रंथ में 'गोम्मटेश दिग्दर्शन' खंड का विशेष प्रावधान किया गया है । एक दिगम्बर मुनि के रूप में आचार्यश्री श्रवणबेलगोल में आयोजित तीन महामस्तकाभिषेक समारोहों-२६ फरवरी, १९४०, ३० मार्च, १९६७ एवं २२ फरवरी, १९८१ के प्रत्यक्ष साक्षी रहे हैं। विगत एक सहस्र वर्ष के इतिहास में किसी भी जैन आचार्य के लिए यह गौरवपूर्ण उपलब्धि है । ३० मार्च, १९६७ के महामस्तकाभिषेक के अवसर पर आचार्यश्री की भावदशा का अंकन एक पत्रकार ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है-"आचार्यश्री आठ घण्टों तक एकाग्र होकर महामस्तकाभिषेक का कार्यक्रम देखते रहे। हिलना-डुलना तो दूर की बात है, उनके तो पलक तक झपकते नहीं दिखाई देते थे।"
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी का वयोवृद्ध एवं अस्वस्थ होते हुए भी २६ जनवरी, १९८१ को श्रवणबेलगोल पहुंच जाना वास्तव में उनकी जीवटशक्ति एवं भगवान् गोम्मटेश के प्रति असीम भक्ति का परिचायक है। इसीलिए २० फरवरी, १६८१ को श्रवणबेलगोल के भट्टारक कर्मयोगी श्री चारूकीर्ति जी ने आचार्यश्री के प्रति श्रद्धा उद्गार व्यक्त करते हुए कहा-"आचार्य महाराज के प्रति हम क्या कहें ? इस अशक्त वृद्धावस्था में कोथली से चलकर यहां तक आने का उन्होंने कष्ट उठाया, यह गोम्मट स्वामी के चरणों में उनकी भक्ति और हम पर उनके स्नेह भाव का प्रतीक है। मेले में उनका दर्शन प्राप्त हुआ यह लाख-लाख लोगों का सौभाग्य ही कहना चाहिए।"
इस महामस्तकाभिषेक की पूर्व संध्या पर देश की लोकप्रिय तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी के दर्शन करना चाहती थीं। मंच की ओर जाते हुए उन्होंने महोत्सव के आयोजकों से जिज्ञासावश यह प्रश्न किया था-'आचार्य देशभूषण जी कहां विराजते हैं ?' उस समय संयोगवश सुरक्षा की दृष्टि से इन दोनों महान् विभूतियों की भेंट नहीं हो पाई किन्तु महोत्सव के अवसर पर विराट जनसभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने सर्वप्रथम आचार्यरत्न को स्मरण करके उन्हें 'मुनिदेव' के गौरवपूर्ण अलंकरण से सम्बोधित कर उनकी साधना के प्रति राष्ट्र की श्रद्धा व्यक्त की थी। इसी अवसर पर शताब्दियों के उपरान्त आचार्यश्री की अध्यक्षता में समागत श्रमणों, दिगम्बर जैन आचार्यों, मुनियों, आयिकाओं एवं अन्य त्यागीजनों की एक धर्मसभा भी आयोजित हुई। इस सभा में दिगम्बर जैन मुनि परिषद् का विधिवत् गठन किया गया। इस प्रकार श्रवणबेलगोल मुनिश्री देशभूषण जी महाराज की आध्यात्मिक यात्रा का साधना केन्द्र है, और इसी सन्दर्भ में प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ में इससे सम्बन्धित 'गोम्मटेश दिग्नर्शन' खंड की संयोजना की गई है। इस खंड के सम्पादन का दायित्व श्री जगवीर कौशिक का रहा है। १६१७, दरीबा कलाँ,
सुमत प्रसाद जैन दिल्ली-११०००६
(प्रबन्ध सम्पादक)
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ
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