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जैन प्रागमों में नारी
-डॉ. विजय कुमार शर्मा
आगम साहित्य का उद्भव और विकास-ई० पू० छठी शताब्दी न केवल भारतवर्ष के लिये अपितु समस्त संसार के लिए अत्यन्त ही उथल-पुथल का युग रहा है। धार्मिक मत-मतान्तर, दार्शनिक विवाद, सामाजिक परिवर्तन, रूढ़िवाद का प्राबल्य आदि-आदि तत्कालीन समाज की विशेषता रही है। साधारण जन इन उतार-चढ़ावों, मत-मतान्तरों से खिन्न और पीड़ित थे। ऐसी ही विप्लवमयी अवस्था में भगवान बुद्ध एवं महावीर का आविर्भाव हुआ। यद्यपि इन दोनों ने ही राज्य-वैभव का परित्याग जाति, रोग, शोक, वृद्धावस्था एवं मृत्यु के दुःखों से छुटकारा पाने के मार्ग की खोज हेतु किया था परन्तु तत्कालीन मत-मतान्तर-वाद एवं सामाजिक उत्पीड़न भी उन्हें घर से बेघर करने में कम सहायक नहीं हुए थे। अतः एक ओर दोनों का उद्देश्य जाति-जरा, मृत्यु से पीड़ित प्रजा को सदा सर्वदा सुख की स्थिति का मार्ग दिखाना था तो दूसरी ओर तत्कालीन समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था और हिंसामय यज्ञ-याज्ञ आदि से मुक्ति दिलाकर सर्वसाधारण के लिये निवृत्ति-प्रधान श्रमण सम्प्रदाय की स्थापना करना था। अत: इन दोनों ही सम्प्रदायों में समानता का होना अत्यन्त स्वाभाविक था। त्रिपिटक एवं आगम के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन दोनों की समानता मात्र विषयवस्तु के वर्णन तक ही सीमित नहीं है बल्कि कितनी ही गाथाएं और शब्दावलियां भी समान हैं। दोनों शास्त्रों का -वैज्ञानिक एवं तुलनात्मक अध्ययन मनोरंजक और उपयोगी हो सकता है।
आगम भगवान् महावीर के उपदेशों का संकलन है। ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् लोकहित में श्रमण महावीर यावज्जीवन 'जम्बूद्वीप के नाना गाँव, निगम, जनपद आदि में घूम-घूमकर उपदेश करते रहे। उन दिनों सूत्रों को कण्ठान रखने की परम्परा थी। 'आगमों को सुव्यवस्थित बनाये रखने हेतु समय-समय पर जैन श्रमणों के सम्मेलन होते थे। उन सम्मेलनों में, उनके गणधरों ने भगवान् के उपदेशों को सूत्र रूप में निबद्ध किया । आगम साहित्य का निर्माण-काल पाँचवीं शताब्दी ई० पूर्व से लेकर पाँचवीं शताब्दी ई० तक माना जाता है। इस तरह से आगम एक हजार वर्ष का साहित्य कहा जा सकता है। ये आगम सूत्रमय शैली में होने के कारण अत्यन्त गम्भीर एवं दुरूह थे। इन्हें बोधगम्य बनाने के लिये समय-समय पर आचार्यों ने इन पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाएँ लिखीं। कथा लिखने की यह परम्परा ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी से लेकर ईस्वी सन् की सोलहवीं शताब्दी तक चलती रही। साहित्य समाज का दर्पण होता है अतः ये आगम साहित्य, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, तत्कालीन भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं। इनके सम्यक् अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इनमें प्रचुर मात्रा में तत्कालीन सांस्कृतिक और सामाजिक विवरण प्राप्त हैं।
प्रस्तुत निबन्ध में हमारा प्रयास आगम साहित्य के आधार पर नारी का अध्ययन प्रस्तुत करना है। ग्रन्थों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि जैन आगम ने मनुस्मृति में आये नारी स्वरूप का ही पिष्टपेषण किया है। नारी के सम्बन्ध में वहाँ कहा गया है :
जाया पितिव्वसा नारी दत्ता नारी पतिव्वसा ।
विहवा पुत्रवसा नारी नत्यि नारी सयंवसा ॥' तुलनीय- बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत्पाणिग्राहस्य यौवने ।
पुत्राणां भर्तरि प्रेते न भजेत्स्त्री स्वतंत्रताम् ॥' अर्थात् जब स्त्री पैदा होती है तो वह पिता के अधीन रहती है, विवाहोपरान्त पति के अधीन हो जाती है और विधवा होने पर पुत्र के अधीन हो जाती है । अर्थात् नारी यावज्जीवन परतंत्र रहती है। व्यवहार भाष्य के इस श्लोक को आगम साहित्य की नारी-सम्बन्धी
१. व्यवहार भाष्य-३, २३३ २. मनु० ५।१४८
. जैन इतिहास कला और संस्कृति
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