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हुए दिखाया गया है। स्त्रियों को त्याग भाव से परिपूर्ण दिखाया गया है। त्याग में इनकी तुलना नदी के जल से की गई है जो नाना - ग्राम-निगम जनपदों से प्रवाहित हो समुद्र में मिले कर अपना भिन्नास्तित्व बिल्कुल भुला देता है। नदी के जल की तरह पत्नी भी पति से " मिलकर तादात्म्य पा लेती है । वह अपना स्वतंत्रास्तित्व समाप्त कर अर्धाङ्गिणी कहलाने लगती है । स्त्री का यह त्याग उसकी महानता का "परिचायक है । स्त्रियों के इन गुणों के कारण ही आगम ग्रन्थ उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। यहां तक कि गणिका जिन्हें आज का समाज दीन-हीन दृष्टि से देखता है को आज भी आगम ग्रन्थों में एक विशिष्ट स्थान दिया गया है । इनके महत्त्व और सम्माननीय • सामाजिक स्थान का यहां अत्यन्त मनोरम वर्णन प्राप्त है । आज भारतीय समाज में स्त्रियों के प्रति विशेषकर लड़कियों के प्रति जो दीनहीन विचार हैं उनका सर्वथा अभाव वहां दिखता है । कन्या तत्कालीन समाज की भार नहीं मानी जाती थी। वहां उसके शुभ्ररूप का ही दिग्दर्शन होता है।
इस प्रकार उपर्युक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि आगम ग्रन्थ स्त्रियों के प्रति सम्मान और समभाव के पक्षपाती रहे हैं। जैन आगमों में जहां कहीं भी स्त्रियों की होनावस्था का वर्णन मिलता है उसका मात्र उद्देश्य भिक्षुओं में स्त्रियों के प्रति विकर्षण पैदा करना ही है। काम भोग और आत्मकल्याण की खोज ये दोनों दो छोर हैं। ये सिक्के के दो पहलू माने जा सकते हैं जो एक होकर भी कभी एक दूसरे से नहीं मिलते। इसलिये अखिल विश्व के प्राणियों के कल्याण हेतु रचित आगम ग्रन्थ काम-भोगों के प्रधान साधन रूप उस नारी की निन्दा न करते तो क्या करते ? ऐसा करने में उनका मुख्य उद्देश्य विषय-विलास के प्रति वैराग्य उत्पन्न करना था न कि मानव प्राणी में उनके प्रति घृणा का भाव पैदा करना ।
आगम साहित्य में स्त्री का वर्णन वर्तमान भारतीय नर-नारी के लिये अनुकरणीय एवं उपयोगी प्रतीत होता है। पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित, उनके अन्धानुकरण में लीन, विषय-विलास के नशे में चूर भारतीय नवयुवक नवयुवतियां भारतीय परम्पराओं एवं सामाजिक नियमों की अवहेलना कर वासना के पीछे उन्मत्त हो रहे हैं। कविशिरोमणि संत तुलसीदास ने रामचरितमानस में उनका अत्यन्त ही सच्चा चित्र खींचा है। वहां उन्होंने उनकी दयनीय दशा का वर्णन करते हुए कहा है :
नारि विवस नर सकल गोसाईं, नाचहि नर मरकट की नाई । गुनमंदिर सुन्दर पति त्यागी, भजहि नारि पर पुरुष अभागी ।
काश! भारतीय नवयुवक अपनी प्राचीन गरिमा के अनुकूल आगम में वर्णित आचार-संहिता का अनुपालन करते, जिनके अभाव में असामाजिक, हरित विचारों का उद्भव हो रहा है, और वे भारतीय समाज को दुर्दशा की ओर अग्रसारित कर रहे हैं। काश! नारी के सम्बन्ध में हमारी स्वस्थ धारणाएं बनतीं पुनः नारी अपनी प्राचीन खोई प्रतिष्ठा को प्राप्त करती। उन्हें हम सृष्टि की आधारशिला के रूप में देखते जिनके अभाव में हर रचना अधूरी और हर कला रंगहीन रह जाती है । काश ! "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते "रमन्ते तत्र देवता" का मंत्र पुनः घर-घर गुंजायमान होता ।
भगवान् महावीर स्वामी की जन्मभूमि वैशाली नारी जाति को सम्मान देने के लिए विश्वविख्यात रही है। सम्राट् अजातशत्रु के अमात्य वर्षकार की जिज्ञासा का उत्तर देने के लिए भगवान् बुद्ध ने गृद्धकूट शिखर पर अपने प्रिय शिष्य आनन्द से सात प्रश्न किये थे। 'सत्त अपरिहाणि धम्म' के पांचवें सूत्र का रोचक सम्वाद इस प्रकार है
किन्ति ते आनन्द सुत वज्जी या ता कुलित्थियो कुलकुमारियो ता न आक्कस्स पसय्ह वासेन्ती 'ति ?' 'सुतं मे तं भन्ते वज्जी या ता कुलित्थियो "पे०... वासेन्ती 'ति ।'
'यावकीवज्ज आनन्द वज्जी या ता कुलित्थियो कुलकुमारियो ता न आक्क्स्स पसय्ह वासेस्सन्ति, बुद्धि येव आनन्द वज्जीनं पाटिकङ्खा नो परिहानि ।'
श्रमण संस्कृति के उन्नायक महापुरुष वास्तव में नारी जाति के हितों के शुभचिन्तक थे इसीलिए उन्होंने अपनी संघ व्यवस्था में नारी को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया था ।
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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