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भगवान् ऋषभनाथ का वर्णन वेदों में नाना सन्दर्भों में मिलता है । कई मन्त्रों में उनका नाम आया है। मोहन-जो-दड़ो (सिन्धुघाटी) में पाँच हजार वर्ष पूर्व के जो पुरावशेष मिले हैं उनसे भी यही सिद्ध होता है कि उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म हजारों साल "पुराना है। मिट्टी की जो सीलें वहाँ मिली हैं; उनमें ऋषभनाथ की नग्न योगिमूर्ति है। उन्हें कायोत्सर्ग मुद्रा में उकेरा गया है। उनकी इस दिगम्बर बड़वासनी मुद्रा के साथ उनका चिह्न भी किसी-न-किसी रूप में अंकित हुआ है। इन सारे तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि जैनों का अस्तित्व मोहन जोदड़ो की सभ्यता से अधिक प्राचीन है ।
श्री रामप्रसाद चन्दा ने अगस्त १९३२ के 'माडर्न रिव्ह्यू' के "सिन्ध फाइव थाउजेंड इअर्स एगो नामक लेख ( पृ० १५८५६) में कायोत्सर्ग मुद्रा के सम्बन्ध में विस्तार से लिखते हुए इसे जैनों की विशिष्ट ध्यान-मुद्रा कहा है और माना है कि जैनधर्मं प्राग्वैदिक है, उसका सिन्धुघाटी की सभ्यता पर व्यापक प्रभाव था :
"सिन्धु घाटी की अनेक सीलों में उत्कीर्णित देवमूर्तियां न केवल बैठी हुई योगमुद्रा में हैं और सुदूर अतीत में सिन्धुघाटी में योग के प्रचलन की साक्षी हैं अपितु खड़ी हुई देवमूर्तियां भी हैं जो कायोत्सर्ग मुद्रा को प्रदर्शित करती हैं।"
"कायोत्सर्ग (देह विसर्जन) मुद्रा विशेषतया जैन मुद्रा है यह बैठी हुई नहीं, बड़ी हुई है। 'आदिपुराण' के अठारहवें अध्याय में जिनों में प्रथम जिन ऋषभ या वृषभ की तपश्चर्या के सिलसिले में कायोत्सर्ग मुद्रा का वर्णन हुआ है ।"
"कर्जन म्यूजियम ऑफ आवियोलॉजी, मथुरा में सुरक्षित एक प्रस्तर-पट्ट पर उत्कीर्णित चार मूर्तियों में से एक ऋषभ जिन की खड़ी हुई मूर्ति कायोत्सर्ग मुद्रा में है । यह ईसा की द्वितीय शताब्दी की है। मिस्र के आरम्भिक राजवंशों के समय की शिल्पकृतियों में भी दोनों ओर हाथ लटकाये खड़ी कुछ मूर्तियाँ प्राप्त हैं । यद्यपि इन प्राचीन मिस्री मूर्तियों और यूनान की कुराई मूर्तियों की -मुद्राएँ भी वैसी ही हैं; तथापि वह देहोत्सर्गजनित निःसंगता, जो सिन्धुघाटी की सीलों पर अंकित मूर्तियों तथा कायोत्स] ध्यान-मुद्रा में लीन जिन-बिम्बों में पायी जाती है, इनमें अनुपस्थित है। वृषभ का अर्थ बैल है, और यह बैल वृषभ या ऋषभ जिन का चिह्न ( पहचान ) है।"
मोहनजोदड़ो की खुदाई में उपलब्ध मृग्युद्राओं (सीलों) में योगियों की जी ध्यानस्य मुद्राएँ हैं, वे जैनधर्म की प्राचीनता - को सिद्ध करती हैं । वैदिक युग में व्रात्यों और श्रमणों की परम्परा का होना भी जैनों के प्राग्वैदिक होने को प्रमाणित करता है । व्रात्य का अर्थ महाव्रती है । इस शब्द का वाच्यार्थ है : 'वह व्यक्ति जिसने स्वेच्छया आत्मानुशासन को स्वीकार किया है।' इस अनुमान की भी स्पष्ट पुष्टि हुई है कि ऋषभ प्रवर्तित परम्परा, जो आगे चलकर शिव में जा मिली, वेदचचित होने के साथ ही वेदपूर्व भी है।' 'जिस तरह मोहन-जो-दड़ो में प्राप्त सीलों की कायोत्सर्ग मुद्रा आकस्मिक नहीं है, उसी तरह वेद-वर्णित ऋषभ नाम भी आकस्मिक नहीं है, वह भी एक सुदीर्घ परम्परा का द्योतक है, विकास है। ऋग्वेद के दशम मण्डल में जिन अतीन्द्रियदर्शी 'वातरशन' मुनियों की चर्चा है, वे जैन मुनि ही हैं ।
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श्री रामप्रसाद चन्दा ने अपने तेल में जिस सील का वर्णन दिया है, उसमें उत्कीर्णित ऋषम-मूर्ति को ऋषभ मूर्तियों का 'पुरखा कहा जा सकता है। ध्यानस्य ऋषभनाथ त्रिशूल, कल्पवृक्ष पुष्पावलि, वृषभ, मृदु लता, भरत और सात मन्त्री आदि महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं । जैन वाङमय से इन तथ्यों की पुष्टि होती है।' इतिहासवेत्ता श्री राधाकुमुद मुकर्जी ने भी इस तथ्य को माना है। मथुरासंग्रहालय में भी ऋषभ की इसी तरह की मूर्ति सुरक्षित है।' पी० सी० राय ने माना है कि मगध में पाषाणयुग के बाद कृषि युग का प्रवर्तन ऋषभयुग में हुआ i
१. भारतीय दर्शन; वाचस्पति गैरोला
पृ० ९३
२. संस्कृति के चार अध्यायः रामधारीसिंह दिनकर पृ० ३१
३. आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव; डॉ० कामताप्रसाद जैन; पृ० १३८
४. हिन्दू सभ्यता; डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी, (हिन्दी अनु० वासुदेवशरण अग्रवाल); दिल्ली १६७५; १० ३६
५. वही; पृ० २३
६. जैनिज्म इन बिहार; पी० सी० राव चौधरी: पु० ७
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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