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मूर्ति जैनों के लिए साधना-आराधना का आलम्बन है । वह साध्य नहीं है, साधन है । उसमें स्थापना निक्षेप से भगवत्ता की परिकल्पना की जाती है। शिल्पी भी वही करता है। मोहन-जो-दड़ो में जो सीलें (मुद्राएं) मिली हैं, वे भी साधन हैं, साध्य नहीं हैं; मार्ग हैं, गन्तव्य नहीं हैं, किन्तु शिल्प और कला, वास्तु और स्थापत्य के माध्यम इतने सशक्त हैं कि उनके द्वारा परम्परा और इतिहास को प्रेरक, पवित्र और कालातीत बनाया जा सकता है।
जैन स्थापत्य और मूर्ति - शिल्प का मुख्य प्रयोजन आत्मा की विशुद्धि को प्रकट करना और आत्मोत्थान के लिए एक व्यावहारिक एवं सुमपुर भूमिका तैयार करना है, इसलिए सौन्दर्य मनोज्ञता, प्रफुल्लता, स्थितप्रज्ञता, एकाग्रता, आराधना, पूजा आदि के इस -माध्यम को हम जितना भी यथार्थमूलक तथा भव्य बना सकते हैं, बनाने का प्रयत्न करते हैं। इनमें भगवान् भला कहाँ है ? कैसे हो सकते हैं? फिर भी हैं और हम उन्हें पा सकते हैं। मूर्ति की भव्यता इस में है कि वह स्वयं साधक में उपस्थित हो और साधक की सार्थकता इसमें है कि वह मूर्ति में समुपस्थित हो। इन दोनों के तादात्म्य में ही साधना की सफलता है ।
मोहनजोदड़ो से प्राप्त सीतों (मुद्राओं) की सब से बड़ी विशेषता है कला की दृष्टि से उनका उत्कृष्ट होना शरीर बटन और कला - संयोजन की सूक्ष्मताओं और सौन्दर्य की संतुलित अभिव्यक्ति ने इन सीलों को एक विशेष कला संपूर्णता प्रदान की है। - बहुत सारे विषयों का एक साथ सफलतापूर्वक संयोजन इन सीलों की विशेषता है ।
उक्त दृष्टि से भारत सरकार के केन्द्रीय पुरातात्विक संग्रहालय में सुरक्षित सील क० ६२० / १९२०-२६ समीक्ष्य है। इसमें जैन विषय और पुरातथ्य को एक रूपक के माध्यम से इस खूबी के साथ अंकित एवं समायोजित किया गया है कि वे जैन पुरातत्त्व और इतिहास की एक प्रतिनिधि निधि बन गये हैं । न केवल पुरातात्त्विक अपितु इतिहास और परम्परा की दृष्टि से भी इस सील (मुद्रा) का अपना महत्त्व है ।
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इसमें दायीं ओर नग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान् ऋषभदेव हैं, जिनके शिरोभाग पर एक त्रिशूल है, जो रत्नत्रय सम्यग्दर्शन सम्मान और सम्यचारिण) का प्रतीक है निकट ही नवमीश हैं उनके ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत, जो उष्णीष धारण किये हुए राजसी ठाठ में हैं वे भगवान् के चरणों में अंजलिवद्ध भक्ति-पूर्वक नतमस्तक है। उनके पीछे वृषभ (बैल) है, जो ऋषभनाथ का चिह्न (पहचान ) है । अधोभाग में सात प्रधान अमात्य हैं, जो तत्कालीन राजसी गणवेश में पदानुक्रम से पंक्तिबद्ध हैं ।
चक्रवर्ती भरत सोच रहे हैं : 'ऋषभनाथ का अध्यात्म-वैभव और मेरा पार्थिव वैभव !! कहाँ है दोनों में कोई साम्य ? वे ऐसी ऊंचाइयों पर हैं जहाँ तक मुझ अकिवन की कोई पहुंच नहीं है।' भरत को यह निष्काम भक्ति उन्हें कमलदल पर पड़े ओस बिन्दु की भांति निर्लिप्त बनाये हुए है। वे आकिंचन्य-बोधि से धन्य हो उठे हैं ।
'सर्वार्थसिद्धि' १-१ (आचार्य पूज्यपाद) में कहा है : 'मूर्तमिव मोक्षमार्गवाग्विसर्गं वपुषा निरूपयन्तम्' (वे निःशब्द ही अपनी देहाकृति मात्र से मोक्षमार्ग का निरूपण करने वाले हैं) । शब्द जहाँ घुटने टेक देता है, मूर्ति वहाँ सफल संवाद बनाती है । मूर्ति भक्ति का भाषातीत माध्यम है। उसे अपनी इस सहज प्रक्रिया में किसी शब्द की आवश्यकता नहीं है । उसकी अपनी वर्णमाला है; इसीलिए मिट्टी, पाषाण आदि को आत्मसंस्कृति का प्रतीक माना गया है ।
कौन नहीं जानता कि मूर्ति पाषाण आदि में नहीं होती, वह होती है वस्तुतः मूर्तिकार की चेतना में पूर्वस्थित जिसे कलाकार क्रमशः उत्कीर्ण करना है अर्थात् वह काष्ठ आदि के माध्यम से आत्माभिव्यंजन या आत्मप्रतिबिम्बन करता है । पाषाण जड़ है; किन्तु उसमें जो रूपायित या मूर्तित है वह महत्त्वपूर्ण है। मूर्ति में सम्प्रेषण की अपरिमित ऊर्जा है । यही ऊर्जा या क्षमता साधक को परम भगवत्ता अथवा परमात्मतत्त्व से जोड़ती है अर्थात् साधक इसके माध्यम से मूर्तिमान तक अपनी पहुंच बनाता है ।
शिल्पशास्त्र] प्रथमानुयोग का विषय है। विशुद्ध आत्मबोधि से पूर्व हम इसी माध्यम की स्वीकृति पर विवश हैं आगम 'क्या है ? आगम माध्यम है सम्यक्त्व तक पहुंचने का । आगम केवली के बोधि-दर्पण का प्रतिबिम्ब है, जिसका अनुगमन हम श्रद्धा-भक्ति 'द्वारा कर सकते हैं। 'आगम' शब्द की व्युत्पत्ति है 'आगमयति हिताहितं बोधयति इति आगम' (जो हित-अहित का बोध कराते हैं, वे आगम हैं) । तीर्थंकर की दिव्यवाणी को इसीलिए आगम कहा गया है ।
कहा जा सकता है कि अध्यात्म से पुरातत्त्व एवं मूर्तिशिल्प आदि की प्राचीनता का क्या सम्बन्ध है ? इस सिलसिले में हम
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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