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धारणाओं का प्रतिनिधि-वाक्य माना जा सकता है। आगम साहित्य में स्त्रियों को विश्वासघाती, कृतघ्न, कपटी और अविश्वसनीय बताया गया है । फलस्वरूप इन पर कठोर नियंत्रण रखने का स्पष्ट निर्देश है। रामचरितमानस में संत तुलसी का नारी के सम्बन्ध में यह कथन यहाँ उल्लेखनीय है :
विधिहु न नारि हृदय गति जानी । सकल कपट अघ अवगुण खानी ॥' एवं- महावृष्टि चली फुटि कियारी। जिमि स्वतंत्र भय बिगरहि नारी ॥'
आगम में स्त्रियों को प्रताड़ित करने के अनेक प्रसंग प्राप्त हैं। बृहत्कल्प भाष्य की यह कथा इस कथन की पुष्टि के लिये पर्याप्त मानी जा सकती है । कथा है कि एक पुरुष के चार पत्नियां थीं। उसने चारों को अपमानित कर गृहनिष्कासन का दण्ड दिया। उनमें से एक दूसरे के घर चली गई, दूसरी अपने कुलगृह में जाकर रहने लगी, तीसरी अपने पति के मित्रगृह में चली गई। परन्तु चौथी अपमानित होकर भी अपने पतिगृह में ही रही। पति ने इस पत्नी से प्रसन्न होकर उसे गृहस्वामिनी बना दिया।'
भावदेवसूरि के पार्श्वनाथ चरित्र में स्त्रियों के सम्बन्ध में जो भाव व्यक्त किया गया है, वह उनकी दयनीय स्थिति को और अधिक उजागर कर देता है। वहाँ कहा गया है कि एक ज्ञानी गंगा की रेत की मात्रा का ठीक-ठीक अनुमान लगा सकता है, गंभीर समुद्र के जल को वह थाह सकता है, पर्वत के शिखरों की ऊंचाई का सही-सही माप कर सकता है, परन्तु स्त्री-चरित्र की थाह वह कतई नहीं पा सकता। स्त्रियों को प्रकृति से विषम, प्रिय-वचन-वादिनी, कपट-प्रेमगिरि तटिनी, अपराध सहस्र का आलम. शोक उत्पादक, बल-विनाशक, पुरुष का वध-स्थान, वैर की खान, शोक की काया, दुश्चरित्र का स्थान, ज्ञान की स्खलना, साधुओं की अरि, मत्तगज सदृश कामी, बाधिनी की भांति दुष्ट, कृष्ण सर्प के सदृश अविश्वसनीय, वानर की भांति चंचल, दृष्ट अश्व की भांति दुर्धर्ष, अरतिकर, कर्कशा, अनवस्थित, कृतघ्न आदि-आदि विशेषणों से सम्बोधित किया है। नारी पद की व्याख्या करते हुए कहा गया है-"नारी समान न नराणं अरओ" अर्थात् नारी के सदृश पुरुषों का कोई दूसरा अरि नहीं, अतएव वह नारी है । अनेक प्रकार के कर्म एवं शिल्प द्वारा पुरुषों को मोहित करने के कारण महिला-"नाना-विधेहि कम्मेहि सिप्पइयाएहि पुरिसे मोहति", परुषों को उन्मत्त बना देने के कारण प्रमदा-'पुरिसे मत्ते करेंति', महान् कलह करने के कारण महिलया-'महत्तं कीलं जणयंति', पुरुषों को हाव-भाव द्वारा मोहित करने के कारण रमा-"पुरिसे हावभावमाइएहि रमंति"; शरीर में राग-भाव उत्पन्न करने के कारण अंगना"पूरिसे अंगाणुराए करिति", अनेक युद्ध, कलह, संग्राम, शीत-उष्ण, दुःख-क्लेश आदि उत्पन्न होने पर पुरुषों का लालन करने के कारण ललना-"नाणाविहेसु जुद्धभंडणसंगामाडवीसु नहारणगिण्हणसीउण्हदुक्खकिलेसमाइएसु पुरिसे लालंति", योग-नियोग आदि द्वारा पुरुषों को वश में करने के कारण योषित्-पुरिसे जोगनिओहि वसे ठाविति' तथा पुरुषों का अनेक रूपों द्वारा वर्णन करने के कारण वनिता-पुरिसे नानाविहेहि भाहिं वणिति' कहा गया है। इस आशय का आवश्यकचूर्णी का यह श्लोक उल्लेखनीय है :
अन्नपानहरेबालां, यौवनस्थां विभूषया ।
___ वेश्यास्त्रीमुपचारेण वृद्धां कर्कशसेवया ॥ वे स्वयं रोती हैं, दूसरों को रुलाती हैं, मिथ्याभाषण करती हैं, अपने में विश्वास पैदा कराती हैं, कपटजाल से विष का भक्षण करती हैं, वे मर जाती हैं परन्तु सद्भाव को प्राप्त नहीं होती हैं। महिलाएँ जब किसी पर आसक्त होती हैं तो वे गन्ने के रस के समान अथवा साक्षात् शक्कर के समान प्रतीत होती हैं लेकिन जब वे विरक्त होती हैं तो नीम से भी अधिक कटु हो जाती हैं। यूवतियां क्षण भर में अनुरक्त और क्षण भर में विरक्त हो जाती हैं। हल्दी के रंग के जैसा उनका प्रेम अस्थायी होता है। हृदय से निष्ठर होती हैं तथा शरीर, वाणी और दृष्टि से रम्य जान पड़ती हैं। युवतियों को सुनहरी धुरी के समान समझना चाहिये। उत्तरा-.. ध्ययन टीका में स्त्रियों को अति-क्रोधी, बदला लेने वाली, घोर विष, द्विजिह व और द्रोही कहा है। बौद्ध साहित्य के अंगुत्तरनिकाय में इसी से मिलता-जुलता वर्णन मिलता है। वहाँ स्त्रियों को आठ प्रकार से पुरुष को बांधने वाली कहा गया है-रोना, हँसना, बोलना.
१. रामचरितमानस-२३३-३ २. वही ३३३-२०
बृहत्कल्पभाष्य-१,१२५६, पिण्डनियुक्ति ३२६ आदि विन्तरनित्ज, हिस्ट्री ऑव इण्डियन लिटरेचर, भाग २, पृ० ५७५ तन्दुलवैचारिक, पृ० ५० आदि, द्रष्टव्य-कुणाल-जातक, असातमंत जातक आदि आवश्यकचूर्णी, पृ० ४६२
डा० जे० सी० जैन, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० २४७ ८. उत्तराध्ययन टीका ४, पृ० ६३ आदि
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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