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शत्रुञ्जय पर्वत पर बने जैन मन्दिरों से प्राप्त संगमरमर की प्रतिमा अष्टभुजा है तथा उपर्युक्त चिह्नों से अंकित है। गिरनार 'पर्वत (गुजरात) पर बने तेजपाल और वस्तुपाल के जैन मन्दिरों में 'चतुर्भुजा' देवी की प्रतिमा स्थापित है। ऊपर के दोनों हाथों में चक्र तथा नीचे के हाथों में माला एवं शंख सुशोभित हैं । देवी का वाहन गरुड भी दिखाई दे रहा है।
यह शेष २३ शासन देवताओं की नायिका हैं, तथा सूरिमन्त्र, पंच परमेष्ठी और सिद्धचक्र यन्त्र मन्त्रों की अधिष्ठात्री है। इसके यन्त्रों में श्री, ह्री, कीति, लक्ष्मी आदि देवता भी प्रतिष्ठित हैं। भैरव पद्मावती कल्प में दो सूक्तों में इस देवी की स्तुति है तथा दोनों में ही यह देवी चक्र तथा गरुड सहित विद्यमान है।
यक्षी-ब्रिटिश म्यूजियम लन्दन में सिंहासन पर बैठी हुई यक्षी की प्रतिमा रखी हुई है। दो भुजाएँ हैं, एक चरण नीचे की ओर है। प्रतिमा बड़ी ही सुन्दर बन पड़ी है। दूसरी प्रतिमा आठ भुजाओं वाली यक्षी की है। इस पर अंकित लेख में यक्षी का नाम सुलोचना दिया गया है। उसके नेत्र सुन्दर हैं तथा उनके ऊपर वाले हाथों में माला है। दायीं ओर एक हाथ खण्डित है, तीसरे हाथ में चक्र है तथा चतुर्थ हाथ वरद मुद्रा में है। बायीं ओर की दूसरी भुजा में दर्पण है, तीसरे में शंख तथा चौथे में एक प्याला है जो टूट गया है। दोनों ओर चवरधारिणियाँ खड़ी हैं। मस्तक के ऊपर 'जिन' की प्रतिमा है।'
श्री लक्ष्मी-धन की देवी के रूप में श्री देवी का वर्णन दिगम्बर-सम्प्रदाय में प्राप्त होता है । यह देवी चार भुजाओं वाली है तथा हाथों में कमल एवं पुष्प विद्यमान हैं। यह गौरवर्ण देवी है।'
श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यही देवी लक्ष्मी के नाम से प्रसिद्ध है । गजवाहिनी है एवं कमल भुजाओं में सुशोभित है।'
प्राचीनकाल से ही लक्ष्मी की पूजा जैन धर्म में होती रही है। धनतेरस के दिन लक्ष्मी की विशेष पूजा सम्पन्न की जाती है। उसी दिन जैन महिलाएं अपने आभूषणों को धारण करती हैं। लक्ष्मी का वर्णन हिन्दू लक्ष्मी देवी से बहुत भिन्न नहीं है । केवल जैन लक्ष्मी गजवाहिनी है जबकि हिन्दुओं के यहाँ कमलासन होती हैं। इस देवी की अनेक प्रतिमाएं प्राचीनकाल से लेकर अब तक मिलती रही हैं।
योगिनियाँ-जैन आकर ग्रन्थों में योगिनियों की संख्या ६४ बतलाई गई है। इनके अनुसार ये रौद्र देवता हैं तथा जिन की आज्ञानुसार कार्य करती हैं :-योगिन्यो भीषणा रौद्र देवता: क्षेत्ररक्षकाः।
ये देवियाँ मूलरूप से तान्त्रिक देवियाँ हैं। अग्निपुराण और मन्त्रमहोदधि में इनका वर्णन प्राप्त होता है। किन्तु जैन अनुयायी भी क्षेत्र-रक्षक के रूप में इनकी पूजा करते हैं । ये अधिकतर भयंकर देवियां हैं, कुछ इनमें से सौम्यस्वरूपा भी हैं, क्षेत्रपालों के अधीन इनको स्वीकार किया गया है। इनकी मूर्तियां तो अधिक प्राप्त नहीं होती हैं परन्तु मन्त्र और स्तोत्र प्राप्त होते हैं तथा कुछ पाण्डुलिपियों में इनके नाम भी प्राप्त होते हैं।
शान्तिदेवी-ग्रन्थों में इस देवी का वर्णन मिलता है। यह कमल पर बैठी हुई है तथा चार भुजाओं में माला, कमण्डलु, वरदमुद्रा एवं घट सुशोभित है । गौरवर्ण है।
यह देवता जैनधर्म में बिल्कुल नयी है। बौद्धधर्म एवं हिन्दू धर्म में इस प्रकार की किसी देवी का वर्णन नहीं मिलता है। जैन लोग ऐसा विश्वास करते हैं कि यह देवी जैनसंघ की रक्षा करती है एवं संघ को उन्नत करती है।
१. जैन इकोनोग्राफ़ी पृ० ३३०-३३१ २. मिडीवल इन्डियन स्कल्पचर, पृ०-४२ ३. औं ह्रीं सुवर्णे चतुर्भुजे पुष्पकमलधनुषहस्ते,
श्री देवी मन्दिरप्रतिष्ठाविधाने अत्रागच्छ ।। पीतवस्त्रां सुवर्णाङ्गी पद्महस्तां गजाङ्किताम् । क्षीरोदतनयां देवी कामधात्रीं नमाम्यहम् ।।
महालक्ष्म्यै नमः (जैनपांडुलिपि: रामघाट पुस्तकालय) ५. जैन इकोनोग्राफी, पृ०-१८२-१८३ ६. शान्तिदेवतां धवलवर्णा कमलासनां चतुर्भुजां,
वरदाक्षसूत्र युक्तदक्षिणकरां कुण्डिकाकमण्डलुवामकराम् । ७. श्रीचतुर्विधसंघस्य शासनोन्नतिकारिणी ।
शिवशान्तिकरी भूयात् श्रीमती शान्तिदेवता ।। (प्रतिष्ठाकल्प)
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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