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पर परमारकालीन है । बदनावर से प्राप्त एक मूर्ति फलक पर प्रमुख नेमिनाथ हैं व पद्मासन मुद्रा में अन्य चार तोर्थंकर हैं जो प्रशंसनीय हैं।
बड़ोह, ग्यारसपुर, सुहानिया, भेलसा, गंधावल, आष्टा तथा बडवानी में अनेक जैन भग्न मंदिर व मूर्तियां मिलती हैं। बावन गज की ऊँचाई की विशाल महावीर प्रतिमा का निर्माण वि० सं० १२३३ में बड़वानी में हुआ। यहां परमार काल में निर्मित आदिनाथ, संभवनाथ, पद्मप्रभ, चन्द्रनाथ, वासुपूज्य, शांतिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ और पार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ हैं जिन पर अभिलेख हैं ।
गंधावल' की जैन देवियों में पद्मावती, मानवी, प्रचण्डा, अंबिका व अशोका प्रसिद्ध हैं। ऊन' से भी इस प्रकार की मूर्तियां - मिली हैं । बदनावर की अश्वारोही मानवी देवी, उज्जैन की अम्बिका तथा पद्मावती प्रतिमाएं विशेष आकर्षक हैं। बदनावर की अभिलेख युक्त चार जैन देवियां प्राप्त हुई हैं। इन पर त्रिशलादेवी, सिद्धायिका देवी, अंकुशा और प्रचण्डा लिखा है जिन पर संवत् १२२६ वैशाख बदी का अभिलेख है । झारड़ा से अष्टभुजी देवी की प्रतिमा वि० सं० १२२७ की प्राप्त हुई है। यह जैन देवी एक वृक्ष को पकड़े हुए है, दाहिने भाग में एक बैल है जिससे अनुमान है कि आदिनाथ की यक्षिणी चक्रेश्वरी हो । आष्टा, मक्खी, पचौर व सखेटी से पद्मावती और चक्रेश्वरी की प्रतिमाएं मिली हैं। दशपुर की पद्मावती अपने मूर्तिशिल्प में विशेष आकर्षक बन पड़ी है।
इन जैन देवियों में सरस्वती (पचौर से प्राप्त) और सुतरादेवी की प्रतिमाएं भी महत्त्वपूर्ण कलाकृतियां हैं। अच्युतादेवी की एक मूर्ति बदनावर से प्राप्त हुई है । देवी अश्वारूढ़ तथा चतुर्हस्ता है । वाम हस्त में ढाल पकड़े हैं और एक से वल्गा थामे हैं । इसके दो हस्त भग्न हैं । देवी के गले व कानों में अलंकार है । ऊपर बिम्ब में तीन जिनप्रतिमाएं हैं और चारों कोनों पर भी छोटी-छोटी जैन तीर्थंकरों की चार आकृतियां हैं। प्रतिमा ३ फुट ६ इंच ऊंची है। चरण चौकी के लेख (संवत् १२२९ वैशाखबदी) के अनुसार अच्युता देवी को कुछ कुदुम्बों के व्यक्तियों ने वर्तमानपुर के शांतिनाथ चैत्यालय में प्रतिस्थापित किया था। उज्जैन की पत्रेश्वरी प्रतिमा में बिम्ब- फलक पर तीर्थंकर हैं । देवी चक्रेश्वरी पुरुषाकृति - गण पर आसीन हैं व नीचे अष्ट पुरुष आकृतियां हैं जो अष्ट दिक्पाल की हैं । नीमचूर, मोड़ी, रिगनोद, जीरण, घुसई (मंदसौर), सोनकच्छ, गोंदलमऊ ईसागढ़, नरबर से भी परमारकालीन जैन देवियों व तीर्थकरों की प्रतिमाएं मिली है।'
जिनप्रभसूरिकृत "विविध तीर्थकल्प" में दशपुर कुङगेश्वर, मंगलापुर में सुपार्श्व और माइलस्वामीगढ़ में महावीर प्रतिमाओं के स्थल बतलाये गये हैं। बाद में जाकर बड़वानी, उज्जैन, मक्सी, बनेड़िया आदि ऐसे स्थान थे जिनका जैन तीर्थ रूप में महव अत्यधिक बढ़ गया था। इस प्रकार मालवा में परमारकालीन शासकों ने शैव व वैष्णव धर्म के साथ-साथ जैन धर्म व जैन कला का पूर्णतः विकास
किया ।
भारतीय इतिहास में परमार शासकों को सर्वधर्म सद्भाव का प्रतिनिधि माना जाता है । भारतीय लोककथाओं का नायक मुंज राजा सीयक का पुत्र था। राजा सीयक ने अपने जीवन के अन्तिम काल में एक जैनाचार्य से मुनि दीक्षा ग्रहण की थी । महाराज भोज के युग में धारा नगरी दिगम्बर जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र बन गई थी। आचार्य अमितगति, माणिक्यनन्दि, नयनन्दि, प्रभाचन्द्र आदि न भोजराज से सम्मान प्राप्त किया था। गुलामवंश के शक्तिशाली सम्राट् शमशुद्दीन अल्तमश की धर्मान्ध एवं शक्तिशाली सेना से पराजित हो जाने के उपरान्त भी राजा देवपाल ने शक्ति संग्रह करके सभी धर्मों के प्रति समादर भाव प्रदर्शित करके राष्ट्र को एकसूत्र में बंधने का मंगल मंत्र दिया था। उस विकट काल में धर्मान्ध शासक भारतीय मन्दिरों को निर्दयता से गिरा रहे थे । किन्तु विध्वंस के इस महानर्तन में भी परमार शासकों के संरक्षण के कारण पं० आशाधर, दामोदर कवि इत्यादि अनेक महत्त्वपूर्ण धर्मग्रन्थों का प्रणयन करते रहे ।
१. आ० स० ई०, १६३५-३६, पृ० ८३
२. वही, १९१८ - १६, पृष्ठ १० प्रो० रि० आ० सं० इं० वे० सं०, १६१६ पृष्ठ ८४
३. मालवा के जैन पुरावशेष - श्री महावीर स्मारिका, १९७६, पृष्ठ ८२-८५
४. विविध तीर्थकल्प, ३२, ४७८५
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी
सम्पादक
महाराज
अभिनन्दन ग्रन्थ
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