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प्रसिद्ध कला-तीर्थ : राणकपुर
डॉ० चेतनप्रकाश पाटनी
जैन धर्म का उद्देश्य है-मनुष्य की पूर्णता अर्थात् संसारी आत्मा स्वयं परमात्मा बने। यह धर्म मनुष्य में निहित देवत्व को आत्मानुभूति के माध्यम से प्रकट करने की प्रेरणा प्रदान करता है, और उसे इस प्रवृत्ति में सहायता भी देता है । एक ओर जहां जैन पद्धति में कठोर अनुशासन, संयम, त्याग और तपस्या की प्रधानता है वहीं दूसरी ओर कला भी दिव्यत्व की उपलब्धि और उसके साथ तादात्म्यीकरण का अत्यन्त पवित्र साधन है। इस धर्म के अनुयायियों ने सदा ही ललित कलाओं के भिन्न-भिन्न रूपों और शैलियों को प्रोत्साहित किया है ।
जैन कला मूलतः धर्म की अनुगामिनी ही रही परन्तु साधना की कठोरता और रुक्षता को कोमल और स्निग्ध रूप प्रदान करने में भी उसने धर्म की विपुल सहायता की है। धर्म के भावनात्मक, भक्तिपरक और लोकप्रिय रूपों के विकास के लिए कला और स्थापत्य की अनगिनत कृतियों के निर्माण की आवश्यकता प्रतीत हुई। इनके निर्माण में और इन्हें अधिकाधिक रम्य और मोहक बनाने में जैन लोगों ने श्रम और अर्थ खर्च करने में कोई कसर नहीं उठा रखी है । जैन धर्म की आत्मा जैन कला में स्पष्टतः प्रतिबिम्बित होती है। जैन कला सौन्दर्य-बोध के आनन्द का तो सृजन करती ही है परन्तु उससे भी अधिक आत्मोत्सर्ग, शान्ति, समता और सहिष्णुता की भावनाओं को उद्दीप्त करती है । इस प्रभाव से इन्कार नहीं किया जा सकता है ।
विभिन्न ऐतिहासिक युगों की विविध शैलियों में कला और स्थापत्य की कृतियां यों तो सम्पूर्ण भारत में ही बिखरी हुई हैं परन्तु जैन तीर्थस्थल (तीर्थ क्षेत्र, सिद्ध क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र आदि) विशेष रूप से सच्चे अर्थों में कला के भण्डार हैं। जैन लोगों ने अपने तीर्थ क्षेत्रों के लिए जिन स्थानों को चुना है. वे पर्वतों की चोटियों पर या एकान्त निर्जन घाटियों में, भौतिकता की चकाचौंध से दूर सांसारिक आपाधापी के जीवन से अलग, हरे-भरे शान्त मैदानों में हैं। ये स्थान आत्मिक चिन्तन और निश्चल ध्यान में अत्यन्त सहायक सिद्ध होते हैं। इन पवित्र क्षेत्रों के सम्पर्क से आत्मा का कालुष्य दूर होकर निमलता प्रकट होती है । ये स्थान और यहाँ निर्मित कलात्मक 'जिनालय और देव-विग्रह मुक्तात्माओं और महान् पुरुषों के सजीव स्मारक हैं।
यहां एक बात यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक समझता हूं कि जैनधर्म में देवोपासना किसी सांसारिक आकांक्षा के लिए या लौकिक संकटों के निवारण के लिए नहीं की जाती। जैनधर्म की मुख्य मान्यता यह है कि संसारी प्राणी अपने सुख-दुःख, और पाप-पुण्य का फल स्वयं ही भोगता है, ईश्वर या परमात्मा का इसमें कोई दखल नहीं है । अतः जैनों के समस्त धार्मिक क्रिया-कलापों का उद्देश्य है-आत्मशुद्धि । आत्मशुद्धि को प्राप्त करने पर ही कर्मों (भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म) से मुक्ति मिल सकती है और तभी आत्मा परमात्मा बन सकता है। तीर्थक्षेत्रों, सिद्धक्षेत्रों, अतिशयक्षेत्रों एवं पुण्य-स्थलों की यात्राएं भी इसी उद्देश्य से की जाती हैं। ये तीर्थयात्राएं पुण्य-सञ्चय और आत्मशुद्धि में सहायक होती हैं ।
___ यह एक सर्वविदित तथ्य है कि इस देश की गौरवशाली सांस्कृतिक थाती को समृद्ध करने में जैनधर्म के अनुयायियों ने विपुल सहयोग दिया है। यदि यह भी कह दिया जाय कि वे अन्य क्षेत्रों की भांति इस क्षेत्र में भी अग्रणी रहे हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उन्होंने भारत देश के सांस्कृतिक भण्डार को कला और स्थापत्य की अगणित कृतियों से समृद्ध किया है। उनमें से अनेक कृतियों की भव्यता और कला-गरिमा इतनी पत्कृष्ट और अद्भुत बन पड़ी है कि उनकी उपमा नहीं मिलती, वे अपनी मिसाल आप ही हैं और ईर्ष्या योग्य हैं। स्वयं को ही सर्वाधिक जागरूक मानने वाले विदेशी यात्रियों ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है।
__जैन मन्दिरों की शैली भिन्न-भिन्न है परन्तु जो भी उनमें भक्तिपूर्वक प्रविष्ट होता है, उस पर एक-सा ही प्रभाव पड़ता है। श्रवणबेलगोला, हलेविडु, देवगढ़, आबू, राणकपुर आदि के प्रसिद्ध जैनमन्दिर वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। भक्तिप्रवण दर्शनार्थियों पर उनके दर्शन का प्रभाव शान्ति और अनासक्ति के रूप में दृष्टिगत होता है। जैन मन्दिर का तो प्रयोजन ही यही है कि यहाँ बैठकर
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्य
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