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महावीर जैन (श्रमण) संस्कृति के महान उत्थापक के रूप में जाने जाते हैं। जैसा ऊपर कहा गया है, पार्श्वनाथ ने ही जैन धर्म में चार व्रतों की व्यवस्था कर इस धर्म को सुव्यवस्थित किया है।'
जैन विद्वान् पं० बेचरदास जी का कहना है कि "पार्श्वनाथ के बाद दीर्घतपस्वी वर्धमान हुए। उन्होंने अपना आचरण इतना कठिन और दुस्सह रक्खा कि जहां तक मेरा ख्याल है, इस तरह का कठिन आचरण अन्य किसी धर्माचार्य ने आचरित किया हो ऐसा उल्लेख आज तक के इतिहास में नहीं मिलता। वर्धमान का निर्वाण होने से परमत्याग मार्ग के चक्रवर्ती का तिरोधान हो गया।" पालि साहित्य में इसे ही 'अत्तकिलमचानुयोग' कहा है। आत्म-क्लेश का शायद इससे बड़ा कोई रूप अब तक देखने को नहीं मिला है। महावीर को इसका साक्षात् स्वरूप माना गया है। पार्श्वनाथ के चातुर्याम संवर में ब्रह्मचर्य को जोड़कर महावीर ने इसे 'पंचमहाव्रत' का स्वरूप प्रदान किया । इसलिए महावीर को 'पंचमहाव्रतधारी' कहा गया है । अपरिग्रह को तो इस धर्म में अपरिमेय बल प्राप्त है। संग्रह की तो कोई बात नहीं, जिसने अपने शरीर में कोई गांठ ही नहीं लगायी उसे परिग्रह से क्या मतलब ? इसी अर्थ में तो महावीर को निगंठ या 'निर्ग्रन्थ' कहा गया है। महावीर को 'जिन' कहा गया है और 'जिन' के द्वारा जो कहा गया वही 'जैनधर्म' है। जिन शब्द का अर्थ होता है-जीतने वाला। जिसने अपने आत्मिक विकारों पर पूरी तरह से विजय प्राप्त कर ली है वही 'जिन' है। जो 'जिन' बनते हैं वे हम प्राणियों में से ही बनते हैं। प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा बन सकता है। इसलिए 'जिन' अपने कर्मों के प्रयत्नों का फल है। जिन को सर्वज्ञ और वीतराग कहा गया है। जिन धर्म के विचार और आचार दो अंग हैं। इनके विचारों का मूल स्याद्वाद में है और आचारों का मूल अहिंसा में । भगवान् महावीर ने इस 'स्याद्वाद' और अहिंसा दोनों का चरम उत्थान किया। स्यात् शब्द का अभिप्राय 'कथंचित्' या 'किसी अपेक्षा' से है। अतः संसार में जो कुछ है वह किसी अपेक्षा से नहीं भी है। इसी अपेक्षावाद का दूसरा स्वरूप 'स्याद्वाद' है जिसका प्रयोग अनेकान्तवाद के लिए भी किया जाता है। अतः अनेकान्त दृष्टि से प्रत्येक वस्तु 'स्यात्-सत्' और 'स्यात्असत्' है । यह कितना बड़ा उदार सिद्धान्त है, जो इसमें भी कोई अपनी गांठ नहीं लगाता है।
आचारवाद में अहिंसा का सर्वाधिक महत्त्व है । अहिंसा में कायरता नहीं है बल्कि वीरता है। शौर्य आत्मा का एक प्रधान गुण है, जब वह आत्मा के ही द्वारा प्रकट किया जाता है तब उसे वीरता कहते हैं। इस तरह यह अहिंसा या तो वीरता का पाठ पढ़ाती है या क्षमादान का । महावीर के इस रूप को हम क्या कहें-अहिंसा, शौर्य, क्षमा या उससे भी कोई ऊपर की चीज? इसे ही देखकर तो लोगों ने वर्धमान को उस दिन से 'महावीर' कहा । सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय और ब्रह्मचर्य ये सबके सबवीर-धर्म हैं, साधारण धर्म नहीं है । मगध के पावापुरी नामक स्थान में इस आत्मजयी भगवान् महावीर का परिनिर्वाण हुआ। यहां आज लोग हर वर्ष लाखों की संख्या में एकत्र होकर दीपावली के रूप में भगवान् के निर्वाण दिवस को मनाते हैं।
आज महावीर के भक्तों ने भगवान् को तो अपना लिया है किन्तु उनके सिद्धान्तों को भुला दिया है । इसीलिए आज 'अणुव्रत' और महाव्रत की महत्ता अत्यधिक बढ़ गयी है । अगर हम एक क्षण के लिए भी इस सिद्धान्त का पालन करते हैं और अपने जीवन में उतारते हैं तो जगत् का बड़ा उपकार करते हैं। आज जो विश्व में इतने तनाव हैं, इससे हमें भगवान् महावीर के मार्ग से ही मुक्ति मिल सकती है। यहीं नहीं, प्रवृत्ति से धीरे-धीरे हटकर निवृत्ति के मार्ग पर चलकर मोक्ष पद को प्राप्त कर सकते हैं। अपने जीवन काल में घूम-घूम कर महावीर ने लोगों को इस सिद्धान्त से परिचित करवाया और इस मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित किया। श्रमण संस्कृति का सारा स्वरूप हम महावीर के चरित्र में देख सकते हैं। अपना सारा जीवन इन्होंने इस संस्कृति के उत्थान में लगा दिया। आज लोक में जो कुछ भी है वह इसी तपःपुञ्ज 'जिन' के विकीर्ण तेज की रश्मियां हैं।
१. चातुयामसंवरसंवुतो -सब्बवारिवारितो, सब्बवारियुत्तो, सब्बवारिधुतो, सब्बवारिफुटो सामञफलसुत्तवण्णना, सुमङ्गल विला
सिनी, सं० डॉ० महेश तिवारी, पृ० १८८ । २. जैन साहित्य में विकार, पृ० ८७-८८ ।
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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