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हम लोग आज भी जहां-तहां मंदिरों के बाहरी भागों में जैन मूर्तियां पाते हैं। हैदराबाद के अन्दर गढवाल के निकट पूडूर नामक ग्राम में मंदिर के बाहर कुछ ऐसी जैन मूर्तियां हैं जिन्हें गांव वाले बाहरी देवता के नाम से याद करते हैं। वहीं पर एक शिलालेख भी है, जो जैन अभिलेख कहलाता है जो आठ सौ वर्ष पुराना है।
जैन धर्म संबंधी खंडहरों में उल्लेखनीय है बिक्कवोलु (पूर्वी गोदावरी), दानवुलपाडु (कडपा), पंट्टचेरूवु (हैदराबाद), धेमुलवाड (करीमनगर), पेछ तुंबलं (कर्नूल), बोलनुपाल (नलगोंडा), गोल्लन्तगूडि (महबूबनगर), गोल्लत्तगूडि के केबलय में महावीर की मूर्ति उपलब्ध हुई है जो "हैदराबाद म्यूजियम्" में है।
हन्त्सांग ने लिखा कि अमरावती आदि प्रदेशों में दिगम्बर जैनालय थे। बिक्कवोलु कलशमुळं, गुडिवाड, शिवगंगा विजयवाडा, धर्मवरम, अम्मनबोलु, निडकोनकल्ड, कंबदूरू, अमरापुरम, वल्डमानु, जडचर्ल, पोट्ल चेरूवु कोल्लिपाक, अनुमकोंड, नगुनूरू, दानवुलपाडु में जैनालय थे। दानवुलपाडु में लोक प्रसिद्ध जैनालय था जिसमें तीर्थंकरों की बड़ी-बड़ी मूर्तियां थीं। पेनुकोंड (अनंतपुर) जैन विद्या केन्द्र था। वीर शैव काव्यों में जैन धर्म और बौद्ध धर्म के उत्पीड़न और उन्मूलन के बारे में जो दंतकथाएं प्रचलित और मान्य हैं, उनकी सत्यता के बारे में निम्नलिखित तथ्य कुछ प्रश्नचिन्ह उपस्थित करते हैं । पालुकुरिकी सोमनाथ ने लिखा है कि जैनियों को नाना प्रकार की यातनाएं दी गई थीं। जैनियों पर पथराव तक किये गये थे। इस प्रकार १२०० ई. तक जैन धर्म क्षीण हो चुका था और उसकी जगह वीर शैव धर्म स्थापित हुआ। ध्यान देने की बात यह कि आन्ध्र प्रदेश में पहले जैन धर्म का ही प्रचार लोक में अधिक था। वरंगल के आदि शासक जैनी ही थे । कल्याणी के बिल्लालराज्य के अन्दर बरवेदूवर के नेतृत्व में वीर-शैव संप्रदाय की आंधी उठी । करीम नगर जिले के "वेमुलवाडा' में भी जैन मंदिर शिवालय के रूप में परिवर्तित हुआ । मुदिर में पहरे से प्रतिष्ठित असली जैन मूर्तियां बेचारी दरबान बनकर मंदिर के दरवाजे पर खड़ी हैं। हिन्दू जब जैन-मूर्तियों को ऐसी दशा में पाते हैं तो उनकी नग्नता को छिपाने के विचार से उन पर मिट्टी पोत देते हैं अथवा चिथड़ा या सूत लपेट देते हैं। वरंगल आन्ध्र की राजधानी थी। उसी नगर के बीच "स्वयंभू" भगवान का मंदिर बना था। इसे मुसलमानों ने तहस-नहस कर डाला । वीर शैवों ने जैनियों की थोड़ी-बहुत नग्न मूर्तियों को अपने वीर भद्र की मूर्ति में परिवर्तित कर लिया। लोक संस्कृति :
जैन धर्म आन्ध्र प्रदेश में अत्यन्त लोकप्रिय रहा है । यहां दिगम्बर और श्वेताम्बर मार्ग के अनुयायी रहे हैं। उमास्वामि ने प्रथम शताब्दी ई० में तत्त्वार्थाधिगम सूत्र की रचना की। इसमें उन्होंने तत्त्वों और उनके ज्ञान की पद्धति का वर्णन किया है । कुमारिल भट्ट (लगभग ६५०) ने इसकी आलोचना की है । तीर्थंकरों के आलय जहां थे वहां लोकोपकार की दृष्टि से आन्ध्र प्रदेश में तटाक खुदवाये गये थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि जैन समाज-सेवक थे। जैन धर्म संबंधी परंपराओं की अमिट छाप आज भी आन्ध्र लोक जीवन पर विद्यमान हैं। अक्षराभ्यास ओं नमः शिवाय, सिद्धं नमः द्वारा किया जाता है। शिरोमुडन-परिपाटी को वैष्णव धर्मावलंबियों ने अनिवार्य बनाया है । लोकप्रियता की दृष्टि में रखकर उन दिनों जुलूस आदि मनाये जाते थे जिसकी नकल शैव एवं वैष्णव धर्मों ने की है । अहिंसा सिद्धान्त के अपनाने से ही जैन धर्म का विशेष प्रचार आन्ध्र प्रदेश में हुआ है। यह मत धर्म के नैतिक सिद्धान्तों पर जितना बल देता है, उतना विवेचनात्मक विषयों पर नहीं । इसलिए जब शैवों से इसका संघर्ष हुआ तब जैन धर्म के अनुयायियों ने शास्त्रार्थ पर जोर नहीं दिया था। जैन एवं बौद्ध धर्म इतने लोकप्रिय इसलिए हुए कि उन्होंने धर्म के साथ-साथ लोकभाषा प्राकृत की प्रतिष्ठा भी की थी। रविषेण (६६० ई०) कृत पद्मपुराण का प्रभाव आन्ध्र साहित्य पर पड़ा। कहते हैं कि मुलवाड़ा भीमकवि जैन कवि थे। तेलंगाना में आज भी अनेक जैन देवालय हैं जिनमें कोलनुपाक, वरंगलु, वेमुलवाड आदि उल्लेखनीय हैं। जैन-धर्मानुयायी सिंहनन्दी जाति से आन्ध्र थे। तीर्थकरों के तपस्वी जीवन ने जनता के विचारों को सबसे अधिक प्रभावित किया । वैष्णव संप्रदाय तपस्या-आदर्श के प्रति निष्ठा में एक प्रकार से मध्यमार्गी रहा और शैव संप्रदाय जैसी अनोखी निष्ठा तक नहीं गया। महावीर ने पार्श्वनाथ (१००८ ई० पू०) के द्वारा संस्थापित और अपने समय में विद्यमान धर्म का सुधार किया था। पार्श्वनाथ के व्यक्तित्व की गरिमा और महिमा से अभिभूत हो आन्ध्र लोक-हृदय ने पेनुगोंडा में पार्श्वनाथ की बस्ती प्राचीन काल में बनवाई थी। यहां के एक शिलालेख में जिनभूषण भट्टारक का उल्लेख है । जैनों के चतुर्दश विद्या केन्द्रों में पेनुगोंडा एक है । कोल्लिपाक में आज कल भी जिनभवन हैं। आन्ध्र ग्रामों के अन्त में जहां “पाडु" का उल्लेख है, वहां यह समझा जाता है कि वह ग्राम कभी जैनों का ग्राम रहा होगा । ऐसे जिन “पाडु" लेल्लर जिले में अधिक हैं। नेल्लूर जिले के वागपट्टे गांव में जैन कूप हैं । तेलुणु में अनेक मंदिरों में पद्मासनंदिकृत मूर्तियां हैं जो “संन्यासीदेव" कहलाते हैं। ऐसे देव आर्यवट, पिठापुर, नेदुनूरू, ताटिपाक, दाक्षाराम, पेनुगोंडा आदि गांवों में हैं। ये देव जैन धर्म के देव ही हैं। नायकल्लु गुणदल आदि गांवों में जो खंडहर हैं वे जैन धर्म से संबद्ध हैं। इस प्रकार आन्ध्र प्रदेश में जैन धर्म का लोक-जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा जिसके प्रभाव सम्बन्धी अवशेष आज भी विद्यमान हैं । १३२
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ
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