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बीस मील दूर टेढ़े-मेढ़े रास्ते से होकर नदी पार कर वे गांव पहुंचे। वहां का प्राकृतिक दृश्य देखकर वे मुग्ध हो गए। चारों ओर हरियाली और लता-वृक्षों से घिरे इस स्थान पर उन्होंने मन्दिर को खण्डहर रूप में देखा जिसकी दीवारें जीर्ण-शीर्ण थीं। गर्भगृह में 'पहुंचने पर काले पत्थर की सुन्दर जित-प्रतिमा के दर्शन हुए। उन्होंने आस-पास के जैन मन्दिरों को भी देखा और खण्डहरों व प्रतिमाओं के चित्र लिए।
ये सभी मन्दिर विजय नगर के उत्कर्ष काल के हैं। एक चतुर्मुख जिनालय भी है। मन्दिरों को देखकर उन्हें कंबोडिया के देवलों का स्मरण हो आया । इस मन्दिर में चारों ओर पद्मासनस्थ विशाल जैन-मूर्ति हैं। पहले मन्दिर की मूर्ति को तो उन्होंने भगवान् नेमिनाथ की माना है। चतुर्मुख जिनालय के गर्भ-गृह के पश्चिम दिशा की जिन-मूर्ति का चित्र 'स्वाध्याय' पत्रिका के मुखपृष्ठ पर दिया है। हिरिय वसती (बस्ती) के जिन चंडोग्र पार्श्वनाथ की मूर्ति का भव्य चित्र अन्तिम कवर पृष्ठ पर छपा है । पीछे कुंडलाकार सर्प हैं, ऊपर सात फण हैं। कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी हुई इस सपरिकर मूर्ति को देखते हुए मन नहीं भरता । ऐसी सुन्दर न जाने कितनी मूर्तियां 'भारतवर्ष के कोने-कोने में सर्वथा उपेक्षित, खंडित व अपूज रूप में पड़ी हैं। उनकी ओर तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता और नई-नई अनेक मूर्तियां बनती जा रही हैं जो कला की दृष्टि से उन उपेक्षित पड़ी मूर्तियों के सामने कुछ भी नहीं हैं। मूर्तियां बनानी ही हैं तो प्राचीन मूर्तियों को सामने रखकर वैसी ही मनोहर मूर्तियां बनानी चाहिए जिन्हें देखते ही ध्यान लग जाए । गुप्तकालीन एक ऐसी ही 'पार्श्वनाथ की अन्य मूर्ति के सम्बन्ध में मैंने एक स्वतन्त्र लेख लिखा है। वह मूर्ति वर्तमान में पटना में कानोडिया जी के संग्रहालय में विद्यमान है । ऐसी विरल मूर्ति का जैन समाज को कुछ भी ध्यान नहीं है । यद्यपि गेरसप्पा की उक्त पार्श्वनाथ की मूर्ति उतनी प्राचीन नहीं है। श्री मधुसूदन ढांकी ने तो उसे 14वीं-15वीं शताब्दी की बताया है, किन्तु ज्ञानसागर और विश्वभूषण ने इस पार्श्वनाथ मूर्ति के कारण ही गेरसप्पा को 'पार्श्वनाथ तीर्थ' बतलाया है।
गेरसप्पा के शिलालेखों में १२वीं शताब्दी तक के प्राचीन लेख मिले हैं। १४वों-१५वीं शताब्दी में विजयनगर महाराज के एक सामन्त का शासन था। सघन बनराजी, पूर्व और दक्षिण में दुर्गम पहाड़ और उत्तर में मेघवती, सदानीरा, इरावती नदियों से घिरा यह तीर्थ वास्तव में दर्शनीय है । प्रति वर्ष होने वाली अतिवृष्टि के कारण यहां के निवासी निकटवर्ती स्थानों में जाकर बस गए और इन मन्दिरों के चारों ओर जंगल छा गया। ईस्वी सन् १६२५ में एक पुर्तगाली प्रवासी इधर से गुजरा तो यहां के राजमहल खंडहर हो चुके थे, ऐसा उल्लेख उसने किया है। जब १४वीं-१५वीं शताब्दी में यहा के मन्दिर बने तब यहां काफी धनाढ्य जैन रहते थे । जैन-धर्म को राज्याश्रय भी प्राप्त था, इसीलिए इतने सुन्दर मन्दिर यहां बन सके। दिगम्बर मुनि भी दर्शनार्थ पहुंचते रहे। इसीलिए तीर्थ-मालाओं में यहां के पार्श्वनाथ तीर्थ का उल्लेख मिलता है। गुजरात के भट्टारक ज्ञानसागर १६वी शताब्दी में यहां पहुंचे तब यह नगरी अच्छे रूप में विद्यमान थी। भैरवीदेवी यहां शासन करती थीं । पार्श्वनाथ के मन्दिर को त्रिभूमिया प्रासाद लिखा है । इस मन्दिर को दान दिए जाने का सन् १४२१ का शिलालेख प्राप्त है । गोकर्ण के महामहेश्वर मन्दिर सम्बन्धी १५वीं शताब्दी के शिलालेख में यहां की हिरिक बस्ती के चंद्रोगह पार्श्वनाथ का उल्लेख है । ढांकी जी के अनुसार यहां की शांतिनाथ बस्ती को दान देने का उल्लेख भी मिलता है । चतुर्मुख जिनालय चार भूमि वाला और २०० खम्भों वाला होने का उल्लेख ब्रह्मज्ञान सागर ने किया है । इसके अनेक स्तम्भ अब नष्ट हो चुके हैं। - सन् १३७८ से १३६२ के मध्य दंडनायक सोमण्ण के पुत्र रामण्ण की पत्नी रामक्के ने यहां तीर्थकर अनन्तनाथ की बसती नामक मन्दिर ' बनाया था और नेमिनाथ की प्रतिमा अजय श्रेष्ठी ने बनवाई थी। [विस्तारपूर्वक जानकारी के लिए मधुसूदन ढांकी का 'स्वाध्याय में प्रकाशित सचित्र लेख देखें।
एक विनम्र अनुरोध प्राचीन तीर्थ गेरसप्पा के सम्बन्ध में पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग वर्षों पूर्व से विचारात्तेजक सामग्री प्रस्तुत करता रहा है। किन्तु समाज की उदासीनता एवं केन्द्रीय संगठन के अभाव में दिगम्बर जैन समाज के अनेक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक केन्द्र अब विस्मृति के गर्भ में चले गए हैं।
पश्चिम भारत के पुरातत्त्व सर्वेक्षण ने वर्ष 1892-93 में अनेक आवश्यक सूचनाएं देकर इन मन्दिरों के कलात्मक वैभव एवं पुरातात्विक महत्त्व से जनसाधारण को परिचित कराया था। उपरोक्त रपट में चतुर्मुख बस्ती के जिनालय में चतुर्मुख प्रतिमा (चार दिशाओं में चार तीर्थंकरों की प्रतिमा)का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। साथ ही वर्धमान जिनालय एवं उसमें प्रतिष्ठित जिनबिम्ब, चतुर्मुख वस्ती में भगवान् पार्श्वनाथ के जिनबिम्ब, पार्श्वनाथ वस्ती एवं वर्धमान स्वामी के मन्दिर के विशेष कलात्मक पाषाणों एवं कलात्मक वैभव का परिचय दिया है।
जैन समाज को इस प्रकार की उपयोगी रपटों के आधार पर अपने उपेक्षित तीर्थों के विकास एवं सरक्षण में गहरी रुचि लेनी चाहिए।
-सम्पादक
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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