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मध्यकालीन, 'राष्ट्र महत्तर', 'आधुनिक राठौड़'; मध्यकालीन रणक, ठाकुर, रौत,नायक तथा आधुनिक राणा, ठाकुर, रावत, नाइक आदि पर भी लागू होता है। इनमें से रणक, ठाकुर, रौत, नायक आदि कतिपय वे उपाधियां थीं जो प्रायः शिल्पियों, व्यापारियों आदि के प्रधानों को सामन्ती अलंकरण के रूप में प्रदान की जाती थीं तथा परवर्ती काल में इन अलंकरणात्मक पदों के नाम पर जातियां भी निर्मित होती चली गई।
कुटम्बी - संस्कृत 'कुटुम्बी भाषा शास्त्र एवं व्याकरण की दृष्टि से अवैदिक एवं अपाणिनीय प्रयोग है। चारों वेदों तथा पाणिनि की अष्टाध्यायी' में इसके प्रयोग नहीं मिलते। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राकृत कुड धातु से निष्पन्न 'कोडियो' 'कोडिय' 'कोड. म्बियों' 'कुडुम्बी' आदि जनपदीय देशी शब्दों का संस्कृतिकृत रूप 'कुटुम्ब' अथवा 'कुटुम्बी' है। परवर्ती काल में संस्कृत अभिलेखों को ग्रन्थों आदि में 'कुटुम्बी' का जो अर्थ वैशिष्ट्य देखा जाता है उसका प्रारम्भिक इतिहास प्राकृत आगम ग्रन्थों में विशेष रूप से सरक्षित है। हेमचन्द्र की देशीनाममाला में आए कुडुबिग्रं/कुडच्चियं का अर्थ मैथुन अथवा सुरत कहा गया है। इस सम्बन्ध में पिशल का विचार है कि कुडबिधे मेथुनपरक अर्थ के कारण ही विवाह संस्था से जुड़ गया तदन्तर प्राकृत 'कुटुम्ब' 'परिवार' अथवा गहस्थाश्रम का द्योतक बन गया । इस प्रकार ‘कुटुम्ब' अथवा 'कुटुम्बी' के भाषा शास्त्रीय उद्गम पर वैदिक परम्परा के साहित्य की तलना में प्राकृत जैन परम्परा के साहित्यिक साक्ष्य अधिक उपयोगी प्रकाश डालते हैं।
वैदिक परम्परा के साहित्य की दृष्टि से 'कुटुम्बी' का छान्दोग्योपनिषद् में सर्वप्रथम प्रयोग मिलता है जिसका प्रायः परिवार अथवा गृहस्थाश्रम अर्थ किया गया है। मत्स्य पुराण में उपलब्ध होने वाले 'कुटुम्बी' विषयक लगभग सभी प्रयोग चतथर्यन्त है तथा ब्राह्मण के विशेषण के रूप में ही प्रयुक्त हुए हैं। दीक्षितार महोदय ने ब्राह्मण के कुटुम्बी विशेषण को एक ऐसा विशेषण माना है जिससे दानग्रहण के अधिकारी विशेष की योग्यता परिलक्षित होती है। इसी सन्दर्भ में वायुपुराण के वे उल्लेख भी विद्वानों के लिए विचारणीय हैं जहां सप्तषियों के स्वरूप को ब्राह्मण-वैशिष्ट्य के रूप में उभारा गया है तथा इन्हें गोत्र प्रवर्तक मानने के साथ-साथ 'कटम्बी' भी कहा गया है ।१२ कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दुर्ग-निवेश के अवसर पर राजा द्वारा कुटुम्बियों की सीमा निर्धारण की चर्चा
१. जगदीशचन्द्र जैन, जन मागम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० ६२. २. Majumdar, N.G., Inscriptions of Bengal, III, No.5.36. ३. द्रष्टव्य-चतुर्वेद वैयाकरण पदसूची, होशियारपुर, १९६०.
Katre, S.M., Dictionary of Parini, Poona, 1968, Part I, pp. 180-181. कल्पसूत्र, २.६१, प्रोपपातिकसूत्र, १५.३८, ४८. देशीनाममाला, २.४१. Pischel, R., The Desinamamala of Hemacandra, Bombay, 1938, p.3. 'कुटम्बे शुचौ देशे स्वाध्यायमधीयान:' छान्दोग्योपनिषद्, ८.१५.१. 'कुटुम्बै गार्हस्थ्योचित कर्मणि' छान्दो, ८.१५.१ पर उपनिषद्ब्रह्मयोगी, पृ. २२५. तुल० 'यो दद्यात् वृषसंयुक्त ब्राह्मणाय कुटुम्बिने।
शिवलोके स पूतात्मा कल्पमेकं बसेन्नरः ।। पौर्णमास्यां मघो दद्यात् ब्राह्मणाय कुटुम्बिने । वराहस्य प्रसादेन पदमाप्नोति वैष्णवम् ।। दातव्यमेतत् सकलं द्विजाय कुटुम्बिने नैव तु दाम्यिकाय । समर्पयेद्विप्रवराय भक्त्या कृताञ्जलि: पूर्वमुदीर्य मन्त्रम् ॥ संकल्पयित्वा पुरुषं सपद्यं दद्यादनेकव्रतदानकाय । अव्यङ गरूपाय जितेन्द्रियाय कटुम्बिने देवमनुद्धताया। शर्करासंयुक्तं दद्याद् ब्राह्मणाय कुटुम्बिने । रवि काञ्चनकं कृत्वा पलस्यकस्य धर्मवित् ॥'
मत्स्यपुराण, ५३.१६, ५३.४०, ७३.३५, ६६.१५, ७५.३, सम्पा. जीवानंद, कलकता, १८७६. ११. Dixitar, Purana Index. १२. तुल० वायुपुराण-६१.६२-६६ तथा
प्रनाम्यवंतं यन्ति स्म रसैश्चैव स्वयं कृत:। कुटुम्बिन ऋद्धिमतो बाह यातर निवासिनः।। वायुपुराण, ६१.६६
गुरुमडल सीरीज, कलकत्ता, १९५६.
आचार्यरल श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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