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स्पष्ट कर देते हैं कि
बीस्वरूप से कृषक अवश्य रहे होंगे क्योंकि समग्र कृषकदासों पर वे आधिपत्य करते थे किन्तु ये वास्तविक व्यवसाय करने वाले किसान नहीं थे । हेमचन्द्र द्वारा अभिधान चिन्तामणि में कोशशास्त्रीय अर्थ के रूप में 'कुटुम्बी' को कृषक' मानना अर्थ की दृष्टि से परम्परानुमोदित तथा युक्तिसंगत है किन्तु लौकिक व्यवहार की प्रासंगिकता की दृष्टि से 'कुटुम्बी' देशीनाममाला में कहे गए कोडिज' के या जो प्रामभोक्ता होने के साथ-साथ छलकपटपूर्ण व्यवहार से ग्रामवासियों को परेशान करता था कि राजा के विश्वासपात्र तथा विनम्र सेवक के रूप में राजा को हर प्रकार से सहायता करता था ।
मध्यकालीन आर्थिक व्यवस्था एवं सामुदायिक ढांचों के सन्दर्भ में इतिहासकारों तथा पुरातत्वेत्ताओं ने 'कुटुम्बी' सम्बन्धी जिन मान्यताओं का प्रतिपादन किया है, उनमें प्रो०आर० एस० शर्मा का मन्तव्य है कि मध्यकालीन 'कुटुम्बी' वर्तमान कालिक बिहार एवं उत्तर प्रदेश की शूद्र जाति 'कुर्मियों' तथा महाराष्ट्र की 'कुन्बियों' के मूल वंशज रहे थे। प्रो० शर्मा के अनुसार मध्यकालीन भारत में हुए सामाजिक परिवर्तनों के फलस्वरूप वैश्यों तथा शूद्रों के व्यवसायों में काफी परिवर्तन आ चुके थे। गुप्त काल की उत्तरोत्तर शताब्दियों में शूद्रों ने वैश्यों द्वारा अपनाई जाने वाले कृषि व्यवसाय को प्रारम्भ कर दिया था। सातवीं शताब्दी ई० के साङ्ग तथा ग्यारहवीं शताब्दी ई० के अलबरूनी ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि शूद्र कृषि कार्य में लग चुके थे तथा वैश्यों एवं शुद्धों में रहन-सहन की दृष्टि से भी कोई विशेष भेद नहीं रह गया था। इसी ऐतिहासिक एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य में प्रो० शर्मा 'कुटुम्बियों' को सम्भवतः एक ऐसी कृषक जाति से जोड़ना चाहते हैं जो वर्ण से शूद्र थी। डी० सी० सरकार तथा वासुदेव शरण अग्रवाल की भी यही धारणा है कि 'कुटुम्बी' उत्तर भारत की 'कुलम्बी' अथवा 'कुन्बी' जाति के लोग रहे होंगे। इस प्रसंग में टर्नर महोदय की इण्डो आर्यन डिक्शनरी' के वे तथ्य भी उपयोगी समझे जा सकते हैं जिनमें उन्होंने संस्कृत 'कुटुम्ब' तथा प्राकृत 'कुटुम्बी' को मानक पूर्वी हिन्दी तथा सिन्धी के 'कुर्सी' पश्चिमी हिन्दी के 'कुबी', गुजराती के 'कबी' तथा बहमी पुरानी गुजराती के 'कलम्बी' 'मराठी के 'कलाबी' तथा 'कुन्बी' का मूल माना है।' भाषा शास्त्रीय इस सर्वेक्षण के आधार पर सभी प्रान्तों में बोली जाने वाली
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भाषाओं में 'किसान अर्थ को एकरूपता देखो जाती है। इस प्रकार इतिहासकारों तथा कोशकारों ने 'कुटुम्ब' शब्द के केवल उस पक्ष को स्पष्ट किया है जिसके आधार पर 'कुटुम्बी' को 'कृषक जाति' के रूप में स्पष्ट किया जा सकता है। किन्तु 'कुटुम्बी' का वर्तमान समाधान व्यवहारतः सर्वथा पूर्ण नहीं है । अभिलेखीय साक्ष्यों तथा अनेक साहित्यिक साक्ष्यों के ऐसे उद्धरण दिए जा सकते हैं जिनसे यह भावना दृढ़ होती जाती है कि 'कुटुम्बी' लोगों की ग्राम संगठन के धरातल पर एक ऐसी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही होगी जिसके कारण 'कुटुम्बी' राजा तथा किसानों के मध्य बीच की कड़ी रहे होंगे जिसके कारण उन्हें ग्राम प्रशासन का महत्त्वपूर्ण अधिकारी माना जाने लगा था ।
मध्यकालीन ग्राम संगठनों को ग्रामोन्मुखी तथा आत्म निर्भर अर्थ व्यवस्था ने बहुत प्रभावित किया जिसे इतिहासकार सामन्तवादी अर्थ व्यवस्था के रूप में भी स्पष्ट करते हैं।" गुप्तवंश' तथा पालवंश' के दान पत्रों से उस व्यवस्था के उस आर्थिक एवं राजनैतिक ढांचे की पुष्टि होती है जिसके अन्तर्गत ऐसे अनेक प्रशासकीय पदों का अस्तित्व आ गया था जो भूमिदान तथा ग्रामदान के संवैधानिक व्यवहारों की देख-रेख करते थे । इस सन्दर्भ में 'कुटुम्बी' पद विशेष रूप से उल्लेखनीय है । "
मध्ययुगीन दक्षिण भारत के ग्राम संगठन के सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि पल्लववंशीय राजाओं के काल में 'कोढुक्क पिल्ले' नामक एक अधिकारी के पद का अस्तित्व रहा था।" इस अधिकारी का मुख्य कर्त्तव्य ग्राम दान तथा ग्रामों से आने
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अभिधानचिंतामणि, ३ . ५५४.
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वही, पृ० ११.
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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