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भिक्षा प्राप्त करने की सम्यक् विधि 'सपदान चारिका' है । 'सपदान चारिका' करते हुए भिक्षुगण मध्याह्न के पूर्व पार्श्ववर्ती ग्रामों में जाते थे और बिना किसी भेदभाव के एक के बाद एक घर के सामने मौनभाव से कुछ क्षण खड़े होकर भिक्षा ग्रहण करते थे। खाने के लिए पर्याप्त भोजन एकत्र हो जाने पर लौट आते थे। भोजन का संग्रह परिहार्य था। भिक्षा के प्रकार के सम्बन्ध में किसी प्रकार का प्रत्यक्ष या परोक्ष संकेत निषिद्ध था। बुद्ध और उनके अनुयायी निमंत्रित किए जाने पर गृहस्थों के घर भी भोजन के लिए जाते थे । चीवर का दान भी भिक्षुओं को मिलने लगा था। आवास के लिए विहारों का दान भी बुद्ध को दिया गया था।
भिक्ष जीवन स्वैच्छिक एवं व्यक्तिपरक था। समाज एवं भिक्षुसंघ के प्रति भी जिम्मेदारियाँ थीं पर भिक्षु को सजग रहना पड़ता था कि वे उसके गन्तव्य तक पहुँचने में बाधक न हों। बहुतों के हित के लिए, बहुतों के सुख के लिए (बहुजन हिताय बहुजन सुखाय) सदाचारिका करते रहने का आदेश था । एक साथ एक ही दिशा में चारिका करना वजित था। बुद्ध के मृत्योपरांत धर्म एवं परम्परा में नया मोड़ :
बौद्धधर्म एवं दर्शन के विकास के क्रम में स्व-निर्वाण के लिए एकमुखी प्रयत्न को स्वार्थपरक समझा जाने लगा और परकल्याण की चिन्ता प्रमुख होती गई। इस प्रकार महायान का जन्म हुआ और स्व-निर्वाण के लिए समर्थ रहते हुए भी स्व-निर्वाण को स्थगित रखकर पर को दुःखमुक्त कराने का आदर्श जीवन का प्रमुख लक्ष्य बन गया। इस परिवर्तन का सीधा प्रभाव भिक्षुओं के आचार में उनकी आहारचर्या पर पड़ा और आमिषाहार का सर्वथा वर्जन कर दिया गया ।
सम्राट अशोक के काल तक भिक्षुसंघ अट्ठारह सम्प्रदायों में विभक्त हो चुका था। महायान के विकास से बौद्ध समाज वैचारिक दष्टि से दो दलों में विभक्त हो गया। पूर्व के सभी सम्प्रदायों को हीनयानी की संज्ञा मिली । महायान में पर-कल्याण का लक्ष्य था पर इस लक्ष्य को कार्यरूप देने के लिए भिक्षु को स्वयं समर्थ बनना था और इस हेतु प्रणीत बोधिसत्त्वचर्या अत्यन्त दुरुह एवं समयापेक्ष थी। इस टि को दूर करने का प्रयत्न किया गया और मंत्र-तंत्र की साधना के द्वारा बोधि की प्राप्ति को सहज बनाया गया।
मंत्रयान के विकास के साथ ही बौद्धदर्शन में एक नया मोड़ आया। तष्णा का निरोध, संसार से विरति एवं परिशुद्ध ब्रह्मचर्य के पालन के स्थान पर राग ही चरम लक्ष्य की प्राप्ति का साधन बन गया। इस परिवर्तन से भिक्षुओं की जीवन-चर्या में पर्वजित मद्य, मत्स्य, मांस, मैथन आदि का विधान पुन: हो गया। ऐसा समझा जाता है कि मद्य आदि शब्दों का प्रयोग सांकेतिक था. परन्तु व्यवहार में निम्न स्तर पर इन का दुरुपयोग हुआ।
बुद्ध ने भिक्षुसंघ की स्थापना नित्यचारिका में लगे भिक्षुओं से की थी, पर शनैः-शनैः भिक्षुओं में स्थायी निवास की परंपरा चल पड़ी और विदेशों में बौद्धधर्म एवं परम्परा के प्रवेश के काल तक भिक्षु आरामवासी-विहारवासी बन चुके थे। बुद्ध के जीवन काल में ही बुद्ध और संघ को आरामों-विहारों का दान मिलने लगा था और भिक्षुओं में स्थायी निवास की परम्परा का प्रारम्भ हो चका था। आरम्भ में आराम-विहार नित्यचारिका में रत भिक्षुओं के रात्रि विश्राम एवं वर्षावास की अवधि में त्रैमासिक निवास के उपयोग में आते थे पर कालान्तर में भिक्षुगण किसी आराम-विहार-विशेष से सम्बद्ध रहकर वहां के स्थायी निवासी होने लगे। राजाओं एवं धनिकों के उदारतापूर्वक आर्थिक संबल एवं संरक्षण पाकर आराम-विहार धनोधान्य से पूर्ण हो गये । सम्राट अशोक के राज्यकाल में पाटलिपुत्र के अशोकाराम में सुख-सुविधायें इतनी बढ़ गयी थीं कि भिक्षु वेश में सुख-सुविधा के कामुकों की संख्या ही अधिक हो गयी थी। विदेशों में बौद्धधर्म एवं परम्परा का प्रवेश-प्रचार :
सम्राट अशोक ने बौद्धधर्म की लोकोपयोगिता को देखकर देश-विदेश में बौद्धधर्म के प्रचार-प्रसार का कार्यक्रम बनाया। उस समय से बौद्धधर्म एवं परम्परा एशियाई देशों में प्रविष्ट हुई और अबाधगति से संबंधित होती गई। यह वर्तमान में भी अधिकांश देशों में अक्षुण्णतः जीवित है । इन देशों की बौद्ध-श्रमण परम्परा को मोटे तौर पर तीन भागों-थेरवादी, महायानी और लामाधर्म - में विभक्त कर देखना चाहेंगे। थेरवादी परम्परा:
दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में थेरवादी परम्परा है। थेरवाद बौद्ध धर्म के अट्ठारह सम्प्रदायों में एक मात्र जीवित सम्प्रदाय है। यह सम्प्रदाय रूढ़िवादी रहा है । सम्राट अशोक के संरक्षण में इस सम्प्रदाय की एक संगीति पाटलिपुत्र में हुई जिसमें धर्मविनय का पुन: संगायन हुआ। संगीति के उपरान्त धर्म-प्रचारक भेजे गये। वे धर्म-प्रचारक अवश्य ही थेरवादी धर्म-विनय एवं तत्कालीन परम्परा को इन देशों में ले गये।
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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