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दर्शन की आधार भूमि है । सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह सभी इसी के अंग हैं ! भगवान् के इस उपदेश से प्रभावित हो जनता हिंसा से घृणा करने लगी। सभी धर्मों ने अहिंसा के इस सिद्धान्त को अपनाया। भगवान् महावीर ने तो अहिंसा का प्रयोग समग्र जीवन के लिए बताया-चाहे सामाजिक, आर्थिक या राजनैतिक कोई-सा क्षेत्र क्यों न हो। सामाजिक क्षेत्र में ऊँच-नीच का भेदभाव त्यागकर समता की भावना से जीवन को सन्तुलित किया । आर्थिक जीवन को उचित रूप से संचालित करने हेतु परिग्रह को मर्यादा बना कर चलना बताया तथा राजनैतिक जीवन को ठीक प्रकार संचालित करने हेतु कर-ग्रहण सिद्धान्त में यह बताया कि राजा को प्रजा से उतना ही लेना चाहिए जो उचित हो । इस हेतु उन्होंने भौंरे के फूल से रस ग्रहण के सिद्धान्त के अनुसार कर लेने को अपनाने का समर्थन किया है। आधुनिक युग में महात्मा गांधी ने अहिंसा के इसी सिद्धान्त को ग्रहण कर और उसका प्रयोग कर सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित किया है।
(ख) अपरिग्रह :- अपरिग्रह का अर्थ है-परिग्रह पर दृढ़ता के साथ उत्तरोत्तर संयम रखना। यह वास्तव में अहिंसा का ही एक अंग है। आपके इस सिद्धान्त को अपनाने से समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियां समाप्त होने लगेंगी। स्वेच्छा से सम्पत्ति के अधिग्रहण पर संयम रखने से सामाजिक न्याय और उपभोग-वस्तुओं के समान वितरण की समस्या सुलझेगी। इस सिद्धान्त को पूर्ण रूपेण अपनाने से वर्ग-संघर्ष समाप्त हो जाएगा और शनैः-शनैः एक विवेकशील समाज की रचना हो जाएगी। आपके इस सिद्धान्त को हम साम्यवाद के नाम से भी पुकार सकते हैं ।
(ग) अनेकान्तवादः-उस समय अनेक मत-मतान्तर प्रचलित होने के कारण वे एकांगी सत्य को ही सम्पूर्ण सत्य समझते थे। सब का दावा था कि जो कुछ हमारा कथन है वही सच्चा है और सब झूठे हैं। अनेकान्त द्वारा आपने प्रत्येक वस्तु को ठीक समझने के लिये उसे विभिन्न दृष्टियों से देखना और पृथक्-पृथक् पहलुओं से विचार करना बता कर सर्वांगीण सत्य का स्वरूप बताया। इस सिद्धान्त ने समाज में सहिष्णुता उत्पन्न की । दूसरों के दृष्टिकोण को समझने की प्रवृत्ति भी लोगों में आई । वास्तव में यह सिद्धान्त जो स्याद्वाद भी कहा गया है, भारतीय दर्शन को जैन धर्म की अनूठी देन है।
(घ) कर्मवाद - भगवान महावीर ने कहा-तुम जैसा करोगे वैसा फल पाओगे । कोई भगवान् तुम्हें दुःख-सुख नहीं देता किन्तु पूर्वबद्ध कर्मों का प्रतिफल तुम्हें समय आने पर अपने आप मिल जाता है । इस प्रकार यह कर्म सिद्धान्त हमें बताता है कि अपने भाग्य के निर्माता हम स्वयं हैं । अतः सदैव शुभ आचार-विचार रखो जिससे कर्म तुम्हारी आत्मा को मलिन न कर सके । इन कर्मों का नाश करने से ही आत्मा परमात्मा बन सकती है। इसमें किसी की दया की आवश्यकता नहीं। तुम स्वयं स्वावलम्बी बनो और नर से नारायण बन जाओ। इस प्रकार आपने कर्मवाद के द्वारा आत्मस्वातन्त्र्य का पाठ पढ़ाया । इस सिद्धान्त ने भी भारतीय समाज और दर्शन को बहुत बड़ी मात्रा में प्रभावित किया । आज आप प्रत्येक भारतवासी को कर्म सिद्धान्त का अलाप गाते हुये पाते हैं।
(ङ) गणवाद :-उस समय समाज में उच्च-नीच की गणना जाति से ही होती थी। भगवान् महावीर ने बताया-"मनष्य जाति एक है। यह केवल गुण हैं जो मनुष्य को ऊँचा-नीचा बनाते हैं।" अतः आपके इस सिद्धान्त से समाज में अनाचार पैदा करने वाले व्यक्तियों को कठोर आघात लगा । अब से श्रमण संघ में शूद्रों और ब्राह्मणों सबको बराबर का दर्जा दिया जाने लगा। इस सिद्धान्त से जनता में अच्छे गुण वाला बनने की भावना भी व्याप्त होने लगी। इस प्रकार धीमे-धीमे समाज में शान्ति स्थापित हो गई।
इनके अतिरिक्त आपने संयम, सत्य, दया, क्षमा, शूरता और अस्तेय आदि जो सिद्धान्त प्रस्तुत किये वे भी अनुपम हैं।
४. आर्थिक प्रभाव :-भगवान महावीर स्वयं एक राजा के पुत्र थे और अर्थ की उपयोगिता को भी भली-भाँति जानते थे। अतः उन्होंने यह निश्चित मत जनता के समक्ष प्रस्तुत किया कि सच्चे जीवनानन्द के लिये आवश्यकता से अधिक संग्रह कदापि उचित नहीं। आवश्यकता से अधिक संग्रह से व्यक्ति लोभ-वृत्ति में फंस जाता है और समाज का शेष अंग उस वस्तु-विशेष से वंचित रह जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि समाज में दो वर्गों का निर्माण हो जाता है-प्रथम सम्पन्न वर्ग और दूसरा विपन्न वर्ग । अब जब दोनों के स्वार्थों में टकराव आता है तो उन दोनों में संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है। इस बात को कार्ल मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष का नाम दिया। उन्होंने इसका समाधान एक हिंसक क्रान्ति में बताया । परन्तु भगवान् महावीर ने इस आर्थिक असमानता को दूर करने हेतु अपरिग्रह की विचारधारा प्रस्तुत कर वर्ग-संघर्ष उत्पन्न होने का अवसर न दे, उसे मूल से ही समाप्त कर दिया। जब वर्ग ही निर्मित न होंगे तो संघर्ष भी न होगा। इस प्रकार आपने उसे जड़ से ही समाप्त कर दिया। आपने वस्तु के प्रति ममत्वभाव को छोड़कर समभाव का सिद्धान्त प्रस्तुत किया, जिससे जब समभाव मन में आएगा तब एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को हड़पने का प्रयास न करेगा। फिर वह किसी को अपने अधीन रखने की भावना न करेगा। सब ही स्वतन्त्र रूप से अपने व्यक्तित्व का विकास करेंगे। इस प्रकार की सर्वहितकारी भावना से निश्चय ही विश्वशान्ति को बल मिलेगा। इस अपरिग्रह के आने से समाज में शोषण वृत्ति समाप्त हो जाएगी। पारस्परिक अविश्वास, ईर्ष्या, द्वेष, छल-कपट, दुख-दारिद्रय शोक-सन्ताप, लूट-खसोट आदि सबका प्रमुख कारण परिग्रह वृत्ति है। इससे बचने पर और परिमित
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आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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