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बड़ी संख्या उत्तर भारत में थी। बौद्ध साहित्य में निगण्ठनातपुत्त (भगवान महावीर) को समाहित कर छ: प्रमुख आचार्यों के नाम अनेक स्थानों पर मिलते हैं। उन आचार्यों की प्रतिष्ठा इतनी बढ़ गई थी कि स्वयं मगध सम्राट् अजातशत्रु भी उनसे भेंट करने गये थे। यह स्पहणीय आदर-सत्कार प्रमाणित करता है कि श्रमण जीवन पद्धति समाज में अपनो श्रेष्ठता स्थापित कर चुकी थी। संभवतः यही कारण है कि भगवान् गौतम बुद्ध और भगवान् महावीर को गृहस्थानुयायियों को अलग से संगठित करने की आवश्यकता नहीं हुई । इनके विशिष्टानुयायी श्रमण थे जिन्हें संगठित रखने का प्रयास चलता रहा। श्रमण का शाब्दिक एवं पारम्परिक अर्थ :
श्रमण शब्द श्रम् धातु में अय् प्रत्यय लगाकर बना है। मोनियर विलियम के कोश में इसका अर्थ परिश्रम करना, विशेषकर श्रमसाध्य निम्नकोटि का कार्य करना है। इस दृष्टि से इसका प्रयोग आत्मपीड़न, तप आदि में संलग्न यति, भिक्षु आदि के लिए हुआ है। आप्टे महाशय के अनुसार मुक्ति की प्राप्ति के लिए ध्यान में संलग्न व्यक्ति श्रमण है । ब्राह्मण लोग बुद्ध को श्रमण शब्द से सम्बोधित करते थे। पालि साहित्य में समणो गोतमो' प्रयोग प्रायः मिलता है। पालि साहित्य के अट्ठकथाकारों में अग्रणी आचार्य बुद्धघोस ने समण (श्रमण) का अर्थ 'सामित्त पापत्ता' पापों का शमन हो जाना) किया है। इस अर्थ को इस रूप में भी व्यक्त किया गया है-'समित्त पापानं समणोति'। जिसके पापों का शमन हो चुका है, वह श्रमण है। जनसाहित्य के स्थानाङ्गसूत्र में श्रमण की परिभाषा है - 'सममणई तेण सो समणो' । अभिधान राजेन्द्र में सममणई की व्याख्या इस प्रकार है- 'समिति समतया शत्रु मित्रादिषु अण ति प्रवर्तते इति समण सर्वत्र तुल्य प्रवृत्तिमान्' (जो शत्रु एवं मित्रों में समान रूप से प्रवृत्त है वह श्रमण है ।) स्थानाङ्गसूत्र में ही श्रमण को 'सु-मन' (सुन्दर मन) वाला कहा गया है- 'सो समणो जइ समणो भावेण जइ ज होइ पावनणो'।
श्रमण के उपयुक्त अर्थ श्रमण की व्यक्तिगत आध्यात्मिक उपलब्धि की ओर सकेत करते हैं। परन्तु परम्परा के रूप में श्रमण एक विशिष्ट जीवन पद्धति की ओर इंगित करता है जिसकी कुछेक विशेषतायें हैं। इस परम्परा में वेद और वैदिक कर्मकाण्ड की कोई मान्यता नहीं थी। वे समाज और सामाजिक संगठनों से दूर रहते थे तथा सामाजिक समस्याओं की चिन्ता प्रसंगवश ही करते थे। प्रत्येक व्यक्ति अपनी समस्याओं के समाधान एवं नयी जीवन-पद्धति के अन्वेषण में सतत् प्रयत्नशील रहता था । श्रमणधर्म होने के कारण बौद्धधर्म के सम्बन्ध में भी श्रमण परम्परा की विशेषतायें प्रयोज्य हैं।
बौद्ध परम्परा में श्रमण के स्थान पर भिक्षु शब्द का प्रयोग हुआ है। पालि साहित्य में भिक्खु (भिक्षु) की व्याख्या इस प्रकार की गई है-'भिक्खाचरियं अज्झपगतोंति भिक्खु' (भिक्षा से जीवन-यापन करने वाला भिक्षु है। एक अन्य पहल से भी इसकी व्याख्या की गई है - 'संसारे भयं इक्खति' (संसार में भय देखता है) । सांसारिक जीवन में भय देखने वाला ही संसार से निकलने एवं तदनुरूप आचरण करने के लिए उद्धत होता है । ऐसे व्यक्तियों के लिए जीवन-यापन का सम्यक् साधन भिक्षा है । बौद्धधर्म में भिक्षुजीवन :
बौद्धधर्म भिक्षुधर्म था। इसके विशिष्टानुयायी भिक्षु थे । बुद्ध ने सारे धर्मोपदेश एवं विनय के नियमों का विधान भिक्षओं को लक्ष्य कर किया था। बौद्धधर्म में चरमलक्ष्य की प्राप्ति निर्वाण है। निर्वाण का शाब्दिक अर्थ है -तृष्णा रहित (नि:वाण) । निर्वाण वह चरमावस्था है जहाँ पहुँचकर भिक्षु का चित्त आस्रवों से विमुक्त हो जाता है और उसे विमुक्तिज्ञान प्राप्त हो जाता है । उनका जीवनचक्र समाप्त हो जाता है, ब्रह्मचर्य पूर्ण हो जाता है, करने योग्य सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न हो जाते हैं, पुनर्जन्म नहीं होता है-'रवीणाजाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्तायाति' ।
निर्वाण की प्राप्ति मध्यमाप्रतिपदा से होती है । आत्मपीड़न और काम लिप्सा के दो अन्तों से विलग रहते हुए शील समाधि एवं प्रज्ञा के मार्ग पर चलना ही मध्यमाप्रतिपदा है। शील से आचरण शुद्ध होता है तथा चित्त परिशुद्ध और शांत होता है। समाधि द्वारा परिशुद्ध एवं शान्त चित्त में एकाग्रता आती है जिससे अनित्य दुःख एवं अनात्म के ज्ञान का साक्षात्कार होता है। एकाग्रचित्त द्वारा अनित्य, दुःख एवं अनात्म के ज्ञान का साक्षात्कार ही प्रज्ञा है। शील समाधि एवं प्रज्ञा के चक्रवाताकारीय मार्ग की परिणति निर्वाण में होती है।
मध्यमाप्रतिपदा पर चलने के लिए भिक्षु जीवन अपनाना अनिवार्य माना गया है। घर-परिवार छोड़, केश-म छ मुडवा, चीवर धारण कर, बौद्धधर्म एवं संघ की शरण में प्रव्रज्या लेना ही भिक्षु-जीवन का प्रारम्भ है । भिक्षुओं के आचार को नियंत्रित करने के लिए विनय विहित नियमों का विस्तृत विधान है। भिक्षुओं की आवश्यकताओं के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश है कि पिण्डपात' ही भिक्षुओं का आहार होगा, 'रुक्खमूल' ही सयनासन होगा, 'पंसुकूल' से बना चीवर ही परिधान होगा और 'पूत्तिमुत्त' (गौमूत्र) ही अस्वस्थ हो जाने पर भैषज्य होगा।
माचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रय
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