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अनेकान्तवाद संधि कराने वाला और सामंजस्य कराने वाला है । वह दो विभिन्न और विरोधी विगामी दृष्टियों में एकता स्थापित करता है ।
अनेकान्तवाद दो दृष्टियों से तत्त्व व्यवस्था करता है। वे हैं
द्रव्य दृष्टि - इसके अनुसार किसी भी वस्तु का नाश नहीं होता और वस्तु नित्य है ।
(क)
(ख) पर्याय दृष्टि इसके मतानुसार वस्तु अनित्य तथा परिवर्तनशील है।
इन दोनों दृष्टियों से आज उपरिलिखित दृष्टान्त पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए। पर्याय -दृष्टि से बौद्ध दर्शन सर्वथा समुचित है। द्रव्य की दृष्टि से सांख्य दर्शन ठीक है परमाणुओं का नाम नहीं होता। निष्कर्ष यह है कि पूर्ण वस्तु नित्यानित्यात्मक है। इस प्रकार अनेकान्तवाद का दर्शन अद्भुत शक्तियों एवं परिहार-अंशों से अपूर्ण है।
आज के युग और संसार में अनेकान्तवाद की महती उपयोगिता है। संसार में संकीर्णता, स्थानीयता, फिरकाबाजी, क्षेत्रीयता, साम्प्रदायिकता आदि की प्रवृत्तियां पनप रही हैं। उन सबकी अचूक दवा अनेकान्तवाद है । विश्व में धर्म के नाम पर होने वाले भयानक रक्तपातों की रामबाण औषधि अनेकान्तवाद में सरल रूप में खोजी जा सकती है । अनेकान्तवाद संसार को शान्ति तथा प्रेम का पवित्र संदेश देता है। जैनों का स्याद्वाद ही महान् वैज्ञानिक आइंस्टीन का सापेक्षवाद है। जैनों का परमाणुवाद आज के विज्ञान द्वारा सर्वथा सम्पुष्ट है। इस प्रकार जैन दर्शन की अनेक मान्यताएँ आज के विज्ञान द्वारा समर्थित प्रतिपादित हो रही हैं जिनसे स्पष्ट है कि जैन धर्म, जैन दर्शन और श्रमण संस्कृति वैज्ञानिक, संतुलित और युगानुकूल हैं। श्रमण संस्कृति का स्थायी और ऐतिहासिक महत्व है। इस संस्कृति ने वैदिक धर्म और संस्कृति में मान्य कर्मकाण्ड, यज्ञ-अनुष्ठानों के बाहुल्य, पशुवलि तथा आडम्बर का विरोध किया ।
आजकल विश्व के उबलते हुए वातावरण में श्रमण संस्कृति शीतल सुहावनी जल-वृष्टि के समान है। उसके अनेक सिद्धान्त और अवयव समूची मानवता के लिए वरदान के सदृश हैं। एक प्रकार से जैन-संस्कृति और जैन धर्म मानव संस्कृति तथा मानवधर्मं के रूप में हमारे समक्ष आते हैं । जैन-धर्म और श्रमण-संस्कृति में वे सब गुण, विशिष्टताएं और महानताएँ हैं जो कि एक मानव संस्कृति में होनी चाहिए । चाहे कोई व्यक्ति जैन हो अथवा जैन न हो, परन्तु वह आदर्श धर्मनिष्ठ और नैतिक आचरणशील होने के लिए जैनसिद्धान्तों को स्वयमेव स्वीकार कर लेगा । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन न होने पर भी हम आचरण, कत्र्तव्य तथा मान्यताओं में जैन ही रहते हैं, इसलिए जैन धर्म मानव धर्म के रूप में हमारे समक्ष प्रतिष्ठित है ।
जैन शब्द 'जिन' धातु से व्युत्पन्न है । इसका शाब्दिक अर्थ होता है इन्द्रियों पर संयम रखने वाला । इस दृष्टिकोण से यदि मानव-चिंतन करें तो हमें यह निदित होता है कि जो भी व्यक्ति अपनी इन्द्रियों पर संयम नियंत्रण नियमन रखता हो वह जैन है यह आवश्यकता नहीं कि उसे जैन होना ही चाहिए। इस दृष्टि से ही जैन संस्कृति को बड़ी महत्ता तथा व्यापक गौरव प्राप्त हो जाता है। इसी दृष्टि से जैन धर्म के आचार्यों और जैन धर्मावलम्बियों को विचार करना चाहिए और समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ आचरणव्यवहार करना चाहिए। इससे राष्ट्रीय एकता तथा भावनात्मक समन्वयीकरण की अभीप्सित वांछित भावनाएँ प्रबल, प्रबुद्ध तथा जाग्रत हो सकेंगी और हम साम्प्रदायिक सद्भाव का आदर्श रूप उपस्थित करने में समर्थ-सक्षम' हो सकेंगे ।
विदेशों में जैन-धर्म और बौद्ध धर्म के प्रति बड़ा सम्मान और आकर्षण बढ़ गया है। अमेरिका के 'बीटनिक' आज जैनाचरण करते हुए दिखायी पड़ रहे हैं अहिंसा और अनेकान्तवाद पाश्चात्य देशों के अनेक बायाचों और भौतिक संघर्षो की सुधा सिद्ध हो सकती है।
अहिंसा की व्यापकता
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धर्म की अहिंसा, अहिंसा का चरम रूप है। जैनधर्म के अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी. कीड़े मकोड़ े, आदि के अतिरिक्त पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीव हैं। मिट्टी के देते में कोई आदि जीव तो हैं ही, परन्तु मिट्टी काला स्वयं पृथ्वी कायिक जीवों के शरीर का पिंड है। इसी तरह जल बिन्दु में यन्त्रों के द्वारा दिखने वाले अनेक जीवों के अतिरिक्त वह स्वयं जल - कायिक जीवों के शरीर का पिंड है । यह बात अग्निकाय, आदि के विषयों में भी समझनी चाहिए। इस प्रकार का कुछ विवेचन पारसियों की धर्म पुस्तक 'आवेस्ता' में भी मिलता है। जैसे हमारे यहां प्रतिक्रमण का रिवाज है उसी तरह उनके यहां भी पश्चाताप की क्रिया करने का रिवाज है । उस क्रिया में जो मंत्र बोले जाते हैं उनमें से कुछ का भावार्थ इस तरह है—“धातु उपधातु के साथ जो मैंने दुर्व्यवहार (अपराध) किया हो उसका मैं पश्चात्ताप करता हूं।" "जमीन के साथ मैंने जो अपराध किया हो उसका मैं पश्चात्ताप करता हूं।" "पानी अथवा पानी के अन्य भेदों के साथ जो मैंने अपराध किया हो उसका मैं पश्चात्ताप करता हूं।" "वृक्ष और वृक्ष के अन्य भेदों के साथ जो मैंने अपराध किया हो उसका में पश्चाताप करता हूं। महताब, आफताब, जलती अग्नि, आदि के साथ जो मैंने अपराध किया हो मैं | उसका पश्चात्ताप करता हूं।"
पारसियों का विवेचन जैनधर्म के प्रतिक्रमण-पाठ से मिलता जुलता है जो कि पारसी धर्म के उपर जैनधर्म के प्रभाव का सूचक है ।
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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स्वामी रामभक्त के लेख 'जैनधर्म में अहिंसा' से साभार वर्णी - अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० सं० १२४-२५
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