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है कि उसे राजा स्वयं नियुक्त करता था अथवा नहीं। इस प्रकार ग्राम संगठन की न्यूनतम इकाई कुटुम्ब अथवा कुल के मुखिया 'कुटुम्बी' से पद में बड़ा होने के कारण 'महत्तर' में 'तर्प' प्रत्यय का प्रयोग किया गया है।
जैन साहित्य में उपलब्ध होने वाले अनेक महत्तर' सम्बन्धी उल्लेख मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि यह पद ग्राम संगठन से सम्बन्धित पद था। बृहत्कल्पभाष्य' के एक उल्लेखानुसार किसी उत्सव-गोष्ठी के अवसर पर महत्तर, अनुमहत्तर,ललितासनिक, कटुक, दण्डपति आदि राजकीय अधिकारियों के उपस्थित रहने एवं राजा की अनुमति से सुरापान आदि करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इस उद्धरण से यह सिद्ध होता है कि 'महत्तर' ग्राम संगठन का सदस्य होता था तथा उसकी सहायता के लिए 'अनुमहत्तर' पद भी अस्तित्व में आ गया था। निशीथ भाष्य के प्रमाणों के आधार पर डा. जगदीशचन्द्र जैन ने 'ग्राम महत्तर' एवं 'राष्ट्र महत्तर' दो पदों के अस्तित्व की सूचना दी है।' डा. जगदीशचन्द्र जैन ने राष्ट्र महत्तर को राठौड़ (रट्ठउड) के समकक्ष सिद्ध करने की भी चेष्टा की है।' इस सम्बन्ध में यह विशेष रूप से विचारणीय प्रश्न है कि यदि राष्ट्र महत्तर को राठौड़ का संस्कृत मूल माना जाता है तो 'ग्राम महतर' को भी 'गोड' का संस्कृत मूल मानना चाहिए। डा० आर० एस. शर्मा महोदय ने सूचित किया है कि मध्यकालीन दक्षिण भारत में ग्राम प्रवर तथा ग्राम मुखिया के रूप में ‘गौन्ड' अथवा 'गोड' का अस्तित्व रहा था। "वर्तमान में मैसर में ये गौड शूद्र वर्ण के हैं। किंतु दूसरी ओर गौड ब्राह्मणों के अस्तित्व की भी सूचना मिलती है। अभिप्राय यह है कि मध्यकालीन 'गोन्ड' जिन्हें कि भूमिदान दिया जाता था तथा जो राजकीय प्रशासनिक अधिकारों का भोग करते थे ग्राम संगठन के संदर्भ में 'ग्राम महत्तर' से अभिन्न रहे थे। वर्तमान में 'महत्तर' के अनेक अवशेष प्राप्त होते हैं जिनमें महतो, मेहता, महत्था, मल्होत्रा, मेहरोत्रा, मेहतर आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 'महत्तर' मूल की इन जातियों में ब्राह्मण, वैश्य, कायस्थ, शूद्र आदि सभी वर्गों के लोग सम्मिलित थे तथापि मध्यकालीन आर्थिक व्यवस्था में अर्थ व्यवस्था के ग्रामोन्मुखी हो जाने से जिस दास प्रथा की विभीषिका को जन्म मिला उसके कारण अधिकांशकृषि ग्राम शद्रों द्वारा बसाए गए परिणामत: ग्राम-मुखिया भी अधिकांश रूप से शद्र ही होने लगे थे। इस विशेष परिस्थिति में 'महत्तर' शूद्र होने के रूप में रूढ़ होने लगे तथा इनके पद का अवमूल्यन भी होता गया। त्रिकाण्ड शेष (१४वीं शती ईस्वी) में 'महत्तर' को शद्र तथा 'ग्रामकूट' के पर्यायवाची शब्द के रूप में परिगणित करने का मुख्य कारण भी यही है कि ये अधिकांश मात्रा में शूद्र होते थे तथा पारिभाषिक दृष्टि से वे 'ग्राम कूट' अर्थात् ग्राम के मुखिया भी थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ग्राम के मुखिया के लिए 'ग्रामकूट' का प्रयोग आया है जो परवर्ती काल में 'महत्तर' के रूप में प्रसिद्ध हो गया। हेमचन्द्र की देशो नाममाला (१२ वीं शती ई०) में 'महत्तर' के प्रशासकीय वैशिष्ट्य को विशेष रूप से स्पष्ट किया गया है । हेमचन्द्र ने 'महत्तर' के तत्कालीन प्राकृत एवं जनपदीय भाषाओं में प्रचलित अनेक देशी रूपों का उल्लेख किया है। इनमें से एक रूप था 'महत्तर' तथा कुछ लोग इसे 'मेहरो' अथवा 'मेहर' भी कहते थे। इस मइहर अथवा मेहरों को ग्राम प्रवर अर्थात् ग्राम मुखिया के रूप में स्पष्ट किया गया है। 'महत्तर' के एक दूसरे शब्दरूप का भी हेमचन्द्र उल्लेख करते हैं वह है 'महयरो' जिसे जंगलात के अधिपति (गह्वरपति) के रूप में स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार १२वीं शताब्दी ईस्वी में महत्तर के देशी रूप 'मइहर' अथवा 'महयर' प्रचलित होने लगे थे तथा इनका प्रयोग ग्राम संगठन आदि के अर्थ में ही किया जाता था।
बृहत्कल्पभाष्य, २.३५७४. २. वही, २.३५७४-७६. ३. जगदीशचन्द्र जैन, जन पागम साहित्य में भारतीय समाज, वाराणसी, १९६५, पृ०६२ तथा तुल० निशी यभाष्य, ४. १७३५. ४. वही, पृ. ६२.
Similarly gaumdas village elders and headmen who were assigned lands and given fiscal and administrative rights in the medieval Deccan, did not belong to one single cast, and their modern representatives called 'gaudas' in Mysore are regarded as Sadras'.
Sharma, R.S. Social Change in Early Medieval India, pp. 10-11. ६. वही, पृ.१०.
'श दास्यात् पादजो दासो ग्रामकटो महत्तरः ।' विकाण्डमेष, २.१०.१. ८ अर्थशास्त्र, ४.४६. ६. 'मइहरो ग्रामप्रवरः । मेहरो इत्यन्ये ।' देशीनाममाला, ६. १२१; तथा तुल० पाठभेद (१) महर (२) मेहर. १. 'महयरो गह्वरपतिः।' देशी०६.१२३.
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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