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अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर इतिहासकारों की धारणा है कि नवीं शताब्दी ई० के मध्य तक 'महत्तर' शब्द का स्थान 'महत्तम' ने लिया था। पी०वी० काणे महोदय के द्वारा दी गई सूचना के अनुसार गुप्त कालीन अभिलेखों तथा दान पत्रों में महत्तर' का उल्लेख आया है, इनमें से जयभट्ट के एक दान पत्र (५ वीं शती ई.) में राष्ट्रग्राम महत्तर' का प्रयोग भी मिलता है। परिणामतः यह कहा जा सकता है कि ग्राम संगठन के अतिरिक्त 'राष्ट्र' के संदर्भ में भी 'महत्तर' नामक प्रशासनिक पद का प्रयोग होने लगा था। पालवंश के दान पत्रों में 'महत्तर' का अन्तिम प्रयोग देवपाल का मोंग्यार दान पत्र है। तदनन्तर नवीं शती ई० के मध्य-भाग में 'महत्तम' का प्रयोग होने लगा था। देवपाल के नालन्दा पत्र में इसका सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। तदन्तर त्रिलोचन पाल के ताम्र पत्र, गोविन्द चन्द्र के बसई-दान पत्र, मदन पाल तथा गोविन्द चन्द्र के ताम्रपत्र, गोविन्दचन्द्र के बनारस दान पत्र' में निरन्तर रूप से ‘महत्तर' के स्थान पर 'महत्तम' का उल्लेख आया है।
वस्तुत: अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर यह द्योतित होता है कि गुप्तकाल के उपरान्त ग्राम संगठन का विशेष महत्त्व बढ़ गया था फलतः सामन्त पद्धति की विशेष परिस्थितियों में अधिकाधिक व्यक्तियों को सन्तुष्ट करने की आवश्यकता अनुभव होने लगी थी तथा भूमिदान एवं ग्रामदान के राजकीय व्यवहारों में भी वृद्धि हो गई थी। इस कारण 'महत्तर' से बड़े पद 'महामहत्तर', 'राष्ट्र महत्तर.' 'वीथिमहत्तर' आदि भी अस्तित्व में आने लगे थे। 'महामहत्तर' का उल्लेख धर्मपाल के खलीमपुर दान पत्र में आया है जो अभय कान्त चौधरी के अनुसार महत्तरों के संगठन की ओर संकेत करता है।" 'महामहत्तर' सभी महत्तरों के ऊपर का पद था। वीथि महत्तर' जिला स्तर पर नियुक्त किया गया राजकीय अधिकारी था। गुप्तवंश वर्ष १२० दान पत्र में इसका उल्लेख आया है। 'राष्ट्रमहत्तर' का उल्लेख 'राष्ट्रग्राममहत्तर' के रूप में ५वीं शताब्दी ई० के गुप्त लेख में हुआ है। उतरवर्ती मध्यकाल में राष्ट्र महत्तर' के आधार पर मंत्री आदि के लिए 'महत्तर' का प्रयोग होने लगा। वास्तव में गुप्तकाल से लेकर १२ वीं शताब्दी ई. तक के काल में 'महत्तर' एक सामन्तवादी अलंकरणात्मक पद के रूप में प्रयोग किया जाने लगा था। समय-समय पर तथा भिन्न-भिन्न प्रान्तों में 'महत्तर' के प्रयोग के विभिन्न दृष्टिकोण रहे थे । जैन साहित्य तथा अन्य भारतीय साहित्य के 'महत्तर' से सम्बन्धित विभिन्न उल्लेख इस प्रकार हैं१. विमलसूरि कृत प्राकृत पउमचरिउ में मयहर (महत्तर) का उल्लेख हुआ है। एक स्थान पर विजय, सूर्यदेव, मधुगन्ध, पिंगल,
शूलधर, काश्यप, काल, क्षेम नाम के म यहरों का निर्देश भी आता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पउमचरिय 'महत्तर' को
सामाजिक संगठन के महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में वर्णित करता है।" २. बाण के हर्षचरित में 'जरन्महत्तर'१५ को व्याख्या करते हुए विद्वानों में अनेक मतभेद हैं। पी० बी० काणे के मतानुसार इसे
१. Choudhary, Early Medieval Village, p. 218. २. तुल० Kavi Plate of Jayabhata (5th cent. A.D.), Indian Antiquary,Vol.V,p.114, Maliya Plate of Dharasena II,
Gupta Inscription No. 38, plate 164, p. 169; Abhona Plates of Sankaragana (595 A.D.), Epigraphia Indica. Vol. IX, p. 297: Palitana Plate of Simhaditya (Gupta year 255), E.I. Vol. XI, pp. 16. 18.
Valabhi Grant of Dharasena II, (Gupta year 252), I.A., Vol. 15, p. 187. ३. I.A. Vol. V, p. 114. ४. Monghyar Grant of Devapāla. ५. Nalanda grant of Devapāla. ६. I.A, Vol XVIII, pp. 33, ff.1.4. ७. lbid.,XIV, pp. 101,f. 1.11. ८. Ibid.,XVIII, pp. 14,ff. 1.12. ६. lbid. II, plate No. 29, ff. 1.9. १०. Khalimpur Plate of Dharmapāla, E.I., Vol. IV, plate No.34, 1.47. ११. Ibid., IV, plate No. 34, 1.47. १२. Indian Historical Quarterly, Vol. 19, plate 12, pp.,16, 21. १३. 'राष्ट्रग्राममहत्तर':
पउमचरिउ,६३ १६-१७. 'मार्गग्रामनिर्गतैराग्रहारिकजाल्मः पुरःसरजरत्महत्तरोत्तम्भिताम्भः कुम्भैरुपायनीयकृतदधिगुडखण्डकुसुमकरदण्डनघटितपेटकै: सरमसं समुत्सर्पद्भिः ' हर्षचरित, सप्तम उच्छवास, सम्पा०पी० वी० काणे, पृ०५६.
हर्षचरित, पृ०२१२, निर्णय सागर संस्करण, बम्बई, १९४६ तथा तुलना कीजिए-रघुवंश, १. एंव चन्द्रप्रभचरित, १३.४१. १६. हर्षचरित, पृ० १८३, सम्पादक, पी०वी० काणे, बम्बई १९१८.
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
१५.
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