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साहसाङ क उज्जयिनीश्वर बना होगा । १४६ ई० पू० चन्द्रगुप्त राज्य की अवरसीमा मानने में कोई आपत्ति नहीं है। फिर इस युग में १२-वर्षीय अकाल का उल्लेख महत्त्वपूर्ण निर्णायक दस्तावेज की हैसियत पा गया है। हम अकाल-प्रकरण में पढ़ आये हैं दूसरा अकाल १६०-१४८ ई० पू० में पड़ा था। और यहा थोड़े से अनुमान की भी गुंजाइश है कि चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक' १७० ई०पू० में हुआ होगा। इस तरह अनुमान+संवत्संदर्भ दोनों के परिणामस्वरूप उज्जयिनीश्वर चन्द्रगुप्त का शासनकाल १७०-१४७ ई० पू० तक सहज भाव से स्वीकार किया जा सकता है । १२-वर्षीय 'अकाल' इस काल-सीमा के अन्तभुक्त हो ही जाता है। यही इसके पूर्वापर-क्रम का
हमने उज्जयिनीश्वर चन्द्रगुप्त को बार-बार गुप्तान्वयी लिखा है। इसका प्रमुख कारण अशोक पुत्र तिष्यगुप्त की वंशवल्लरी में चन्द्रगुप्त को गुप्तान्वयी मानना वंशविज्ञान-सम्मत है। फिर इसके सभा-पंडित वामन-जयादित्य का होना एक महत्त्वपूर्ण संदर्भ से अवगत होता है। उसके अनुसार साहसाङ क को गुप्तान्वयी लिखा गया है। अत: साहसाङक के संवत् से प्राग्वर्ती चन्द्रगुप्त को वामनजयादित्य के उल्लेख के साथ गुप्तान्वयी मानना विज्ञान-सम्मत है, तर्क-संगत है और संदर्भ-सिद्ध भी है।
भद्रबाहु के समनामधारी भद्रबाहु की पहचान अब इतनी जटिल नहीं रही। भद्रबाह ने चन्द्रगुप्त को संभाव्य दुष्काल की सूचना दी थी। इसका प्रभाव चन्द्रगुप्त पर पड़ा । चन्द्रगुप्त का अन्य नाम 'चन्द्रगप्ति' भी सुनने में आता है। यही चन्द्रगुप्त भद्र बाहु से जैन दीक्षा लेकर विशाखाचार्य बन गया। भद्रबाह का समय १६०-१०० ईसवीपर्व तक मानने योग्य है । चन्द्रगुप्त ने योगबल द्वारा देह-विसर्जन किया । यहाँ भूयोभूयः स्मरण रखने की बात यह है कि विशाखाचार्य होनेवाले चन्द्रगुप्त को सर्वत्र उज्जयिनीश्वर ही लिखा है। चन्द्रगुप्त और भद्रबाहु के शिष्यत्व-गुरुत्व की मान्यता सर्वत्र देखने में आती है ।
बस अन्तिम चर्चा | श्रवणबेलगोल जैन-तीर्थ पर भद्रबाह-चन्द्रगुप्त की चर्चा एक विख्यात शिलालेख में वर्तमान है। यह भी अनुमान है कि उसका समय शक-संवत् ५७२ है । यदि उक्त शिलालेख पर ५७२ शक उत्कीर्ण हैं, तो मानना होगा उज्जयिनी की उक्त धार्मिक गाथा का यह प्राचीनतम साक्ष्य है, जो ६२२ ईसवी पूर्व से गिना जाता है : ६२२-५७२=५० ई०पू० के प्रमाण से बढ़कर और प्रमाण क्या होगा?
१. "गुप्तान्वय जलधर मार्ग यभस्ति वामनजयादित्य प्रमुख मुख कमल विनिर्गत-सूक्तिमुक्तावली मणिकल मंडित वर्णन विक्रमाङ्कनं साहसाङ्कम् ।
-कन्नड़ पंचतन्त्र, आल इंडिया ओरिएण्टल कान्फ्रेंस मैसूर, दिसम्बर १९३५, पृष्ठ ५६८ । २ ".."भद्रबाहु-स्वामिना उज्जयन्यामष्टांगमहानिमित्ततत्वज्ञेन काल्यशिना निमित्तेन द्वादश संवत्सर-काल-वैषम्यमुपलभ्य कथिते सर्वसंघ: उत्तरपथाद् दक्षिणपय प्रस्थितः।"
-पार्श्वनाथबस्ति का लेख (क) “चन्द्रगुप्ति प स्तवाऽचकच्चारु गुणोदय: ।"
-रत्ननंदिरचित भद्रबाहुचरित्र (ख) “चन्द्रगुप्तिमुनिः शीघ्र प्रथमो दशपूणिताम । सर्वसंधाधिपो जातः विषखाचार्य संज्ञक: ।।"
-बृहत्कथाकोश ४. "ततश्चोज्जयिनीनाथ: चन्द्रगुप्तो महीपतिः । वियोगात यतिनां भद्रबाहु नत्वाऽभवन्मनिः।"
- भद्रबाहुचरित्र ५. "समाधिमरणं प्राप्य चन्द्रगुप्तो दिवं ययो"
.- परिशिष्ट पर्व ८/४४४ ६. (द्रप्टव्य टिप्पणी संख्या-३) ७. (क) “यदीय शिष्योऽजनि चन्द्रग प्तः समग्रशीलानत देववृद्धः ।
विवेश यत्तीवतपः प्रभावात प्रभृतीति भुवनान्तराणि ।" (ख) 'चन्द्रप्रकाशोज्ज्वलसान्द्रकीतिः श्रीचन्द्रग तोऽजनि तस्य शिष्यः ।
यस्य प्रभावात् बनदेवताभि: पाराधित: स्वस्थगणो मनीनाम ॥" ८. वीर नीर्वाण-संवत् पोर जैन काल-गणना : मुनिश्री कल्याण विज प ; ६७-७७ पृष्ठ ।
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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