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त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति
हरिवंशपुराण
तित्थोगालीपइन्नय
राजा पालक == नंद राज्य =
विविध तीर्थ कल्प
६० १५५
१५५
१५५
२१५
२१५
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२१५ वीर-निर्वाण से २१५ वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय हआ। यहाँ एक विशेष 'शब्द' हमारा ध्यान आकर्षित करता है, वह है-निर्वाण । हमने निर्वाण का अर्थ समझ लिया है- 'मोक्ष' । जबकि कोशग्रन्थानुसार नानार्थक 'निर्वाण' का अर्थ केवल मोक्ष ही नहीं है, बल्कि केवली ज्ञान को भी 'निर्वाण' कहते हैं। यह विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है कि ४२ वर्ष की वय में महावीरस्वामी को केवली ज्ञान हुआ था। वह वर्ष ५६६ - ४२=५५७ ई० पू० का था, सो ५५७-२१५ = ३४२ ई० पू० में चन्द्र गुप्त मौर्य का चाणक्य की सहायता से मगधसम्राट के रूप में अभ्युदय जैन-मान्यता के सर्वथा अनुरूप है और यही मान्यता पुराण-शास्त्रों की भी है। इस आकलन के अनुसार नन्दकालीन अकाल (३८२-३७० ई० पू०) चन्द्र गुप्त-अभिषेक के २८-वर्ष-प्राक् समाप्त हो चुका था। इतना ही नहीं, उस समय तक महास्थविर भद्रबाहु के दिवंगमन को भी १५ वर्ष व्यतीत हो चुके थे। निष्कर्षतः काल-विसंगति के संदर्भ में अकालघटना के परिप्रेक्ष्य में चन्द्र गुप्त और भद्रबाहु को करीब-करीव लाना या बताना निरा अनैतिहासिक है। फिर कहाँ रह जाता हैचन्द्रगुप्त मौर्य का मुनिवेश धारण करना और जैन-यतियों के साथ दक्षिण में चले जाना ? इस समग्र सन्दर्भ-जाल के परिवेश में चन्द्रगुप्त मौर्य की जैन दीक्षा लेने की बात हठपूर्वक मन और मस्तिष्क से निकालनी ही होगी।
अब गुप्तान्वयी चन्द्रगुप्त मौर्य की बात करते हैं।
हम पतञ्जलिविरचित 'महाभाष्य' तथा वामनजयादित्य-विरचित काशिका' में पड़ते हैं-'पुष्यमित्र सभम्' 'चन्द्रगुप्त सभम्। इन दो नरनाथों की सभा में कौन-कौन कोविद-कवि विद्यमान थे-यह बताना यहाँ अप्रासंगिक है, अलबत्ता इतना स्मरण रख लेना बहुत जरूरी है-पुष्यमित्र की सभा में व्याकरणमूति पतंजलि विद्यमान थे, चन्द्रगुप्त की सभा में वामन-जयादित्य जैसे भाषामूर्ति व्याकरण-रत्न विद्यमान थे । अतः इनका एक अत्यल्पाक्षरी संदर्भ बड़ा निर्णायक सिद्ध हुआ है । पहले तो इन संदर्भो से इनका पौर्वापर्य का ज्ञान होता है। मगधनरेश पुष्यमित्र पूर्वोदित व्यक्ति है, उज्जयिनो-नाथ चन्द्रगुप्त पश्चादुदित व्यक्ति है । पुष्यमित्र १८५-१८४ ई०पू० में मगध-सम्राट् बना था । पुरणा-शास्त्र प्रतिपादित करते हैं कि (चन्द्रगुप्त मौर्य के) १३७वे वर्ष बाद पुष्यमित्र हुआ। पौराणिक काल-गणना के अनुसार सप्तर्षिसंवत् (१) १२४ =३२१ ईसवी पूर्व में चन्द्रगुप्त मौर्य का निधन हुआ, सो ३२१-१३७-+१८४ ई०पू० से पुष्यमित्र का युग आरम्भ होता है। आधुनिक इतिहासकारों का अभिमत भो इस मान्यता से भिन्न नहीं है। उनके मतानुसार सम्राट अशोक का निधन २३२ ईसवीपूर्व में हुआ। तत्पश्चात् कुणाल ८+बन्धुपालित ८+इन्द्र पालित १०+देववर्मा ७+ शतधार ८+ बृहदश्व ७ - योग ४८ वर्ष; सो, २३२ ४८= १८४ ई० पू० में सम्राट् पुष्यमित्र का आगमन पौराणिक भी है, ऐतिहासिक भी है। यदि पट्टावलियों में अंकित पुष्पमित्र वही है, जिसकी चर्चा हम कर रहे हैं, तो मानना होगा कि जैन-मान्यता भी पौराणिक स्वीकृति से बहुत दूर नहीं है। हम पिछले अनुच्छेद में पढ़ आए हैं त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति, हरिवंश पुराण, तित्थोगाली और विविधतीर्थकल्प के अनुसार वीरनिर्वाण से २१५ वर्ष बाद चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय हुआ। उससे १६० वर्ष बाद पुष्पमित्र मगध-सम्राट् बना। ये सब मिलाकर २१५+१६० =३७५ वर्ष हुए। अतः महावीरस्वामी के केवली ज्ञान से ३७१ वर्ष बाद, अर्थात् ५५७-३७५=१८२ ई० पू० में पुष्यमित्र का अभ्युदय जैन-कालगणना सम्मत है, जो पौराणिक स्वीकृति से केवल दो वर्ष न्यून है। हमने पुष्यमित्र के काल-निर्धारण पर इतनी विस्तृत चर्चा इसलिए की है कि पुष्पमित्र के संदर्भ में गुप्तान्वयी चन्द्रगुप्त मौर्य का समय निश्चित कर सकें।
चन्द्रगुप्त मौर्य (२)पुष्यमित्र के बाद उज्जयिनीश्वर बना, पर वह कब बना ? इसका उत्तर हम विपरीत क्रम से लेते हैं। चन्द्रगुप्त के पुत्र साहसाङ क ने अपना संवत् चलाया, जो १४६ ई० पू० से परिगणित हुआ : हम मान लेते हैं -१४६ ई० पू० में
१. कैवल्य निर्वाणं नि:श्रेयसममृतमक्षरं ब्रह्म।
अपुनर्भवोऽपवर्ग : मुक्ति मोक्षो महानन्दः ।। २. (क) संशय्य कर्णादिषु तिष्ठते यः।
(ख) संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास : प्रथम भाग : पृष्ठ ३२५ । ३ सप्तविंशत् शतं पूर्ण तेभ्यो शुगान गमिष्यति ।
-हलायुधकोश १२४ -किरात ० ३/१४
-वाय
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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