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डालि गुण सापक बसु गुण दिवाय, आयिरिह छत्तीस गुण। पणवह सासणु धम्म पयासणु हउ, अणबीस गुण ससिणि मुनि ॥ ३३ ॥
अन्य रचनाओं की अपेक्षा इसमें आध्यात्मिक तत्त्व ज्ञान का पुट अधिक है, किन्तु रचना का मुख्य उद्देश्य तत्त्व-निरूपण करना नहीं, सरल सहज ढंग से मन को प्रबोधित कर जिनेन्द्र की भक्ति के लिए उन्मुख करना ही है । अपने प्रतिपाद्य और उद्देश्य में रचना सफल है । अन्य रचनाओं की अपेक्षा इसमें छोहल की साम्प्रदायिक मान्यताएँ अधिक स्पष्ट और मुखर हैं। इसके बावजूद रचना सर्व उपयोगी है।
इ/ सौष्टव प्रौर उपलब्धि
पूर्व पृष्ठों में रचनाओं के परिचयात्मक विश्लेषण के क्रम में उनके सौष्ठव का भी उद्घाटन होता गया है। अस्तु यहां उनकी केवल कतिपय विशेषताओं की ओर संकेत कर देना अलम है।
छोहल जैन भक्तकवि थे, मरमी सन्त कवि थे। उनकी कविता का हिन्दी काव्येतिहास में वही महत्त्व है जो कबीर, दादू इत्यादि संतों अथवा तुलसी, सूर इत्यादि भक्तों की कविता का है। वर्ण्य विषय की व्याप्ति के आधार पर उनकी कविता भक्तिप्रधान है । उसे भक्ति, अध्यात्म, नीति, आचार, वंराग्य, स्वतंत्र्य-निरूपण, आत्मतत्त्व की प्रयता, श्रृंगार इत्यादि कोटियों में भी वर्गीकृत कर समझा-परखा जा सकता है। अधिकांश पद्यों में आत्मालोचन के साथ मन, शरीर और इन्द्रियों की सहजवृत्ति का निरूपण करते हुए कवि ने मानव-मन को प्रबोधित किया है। वह पग-पग पर मन को सावधान करता चलता है । छोहल ने कोई भी पद्य मात्र कल्पना- विलास के लिए नहीं लिखा है । प्रत्येक पद्य में वैयक्तिक अनुभूति की गहराई निहित है। स्वानुभूत एवं भोगी गई अनुभूतियां होने के कारण ही पद्य प्रायः कवि के आत्मदर्शन के उदाहरण बन सके हैं।
रस और भाव की व्याप्ति की दृष्टि से छोहल की कविता में केवल भक्ति रस अथवा भक्ति भाव का प्राधान्य होना अस्वाभाविक नहीं । 'पन्थी-गीत', 'उदर-गीत', 'पंचेन्द्रिय वेलि' और 'आत्म प्रतिबोध जयमाल' में विनय भाव की प्रधानता है । इसीलिए इन रचनाओं में अपने कर्मों के लिए पश्चाताप है। इनमें कवि के आकुल प्राण शान्ति और संसार सागर से सन्तरित होने के लिए छटपटा रहे हैं। वह चैतन्य हो गा उठता है
बेलि, ४
क. चितवन परमब्रह्म कीजं तो, भवसागर कूं तरिये ॥ ख. करि धर्म जिण भाषित जुगतिस्यों, त्यों मुकुति पदवी
लहै । पन्थी गीत, ६
ग. करि भगति जिण को जुगुति स्यौं, भवसागर लीलइ तिरौ । - उदरगीत, ४
'बावनी' के पद्यों में भी भक्ति भाव ही है, पर यहां विनय भाव की जगह शांत भाव ने ले ली है। साथ ही यहां धर्मअध्यात्म, नीति-आचार विधि-निषेध सम्बन्धी कथनों को प्रमुखता भी मिली है। इसकी संज्ञा इसीलिए भक्तिकाव्य नहीं, नीति-काव्य है। शांत भाव को जितना विस्तार 'बावनी' में मिला है, उतना अन्यत्र नहीं ।
'पंच सहेली' में तिय-पिय भाव अथवा श्रृंगार है। वहां पंच सहेलियां (जीवात्माएं ) हैं 'तिय' और परमात्मा 'पिय' । तिय-पि यानी दाम्पत्य भाव रहस्यवाद की अभिव्यक्ति के लिए सर्वप्रचलित सहज प्रतीक है। अन्य जैन मरमी संतों ने इसे ही 'सुमति' और चेतन के 'प्रतीक' के रूप में स्वीकार किया है । 'पंच सहेली' में रहस्यवाद की व्यंजना तिय-पिय भाव के माध्यम से ही हुई है । इसकी अन्य विशेषता है शृंगार को सहज मांसल अभिव्यक्ति इस दृष्टि से यह हिन्दी के श्रृंगार-काव्येतिहास में विद्यापति की 'पदावली' के पश्चात् विशिष्ट स्थान और महत्त्व की अधिकारिणी है ।
काव्य-बन्ध की दृष्टि से छोहल की रचनाएँ मुक्तक कही जायेंगी, किन्तु 'पंच सहेली' और 'पन्थी - गीत' के सम्बन्ध में भी यही निर्णय देना सर्वशुद्ध नहीं होगा। उन दोनों में कथा का झोना अंश वर्तमान है । वस्तुतः वे दोनों सफल रूपक काव्य हैं । दोहा छंद में रचित 'पंच सहेली' का स्वरूप एकार्थक काव्य के समान हो गया है। उसे मुक्तक प्रबन्ध कहना समीचीन भले ही न हो, पर स्वरूप है बहुत कुछ वैसा ही ।
छीहल सीमित छन्दों के प्रयोक्ता हैं । दोहा (पंच-सहेली), छप्पय ( बावनी) और कुण्डलिया ( पन्थी - गीत एवं पंचेन्द्रिय वेलि) इनके प्रिय छन्द है। कुण्डनिया में कहीं कहीं मात्राओं को घट-बढ़ भी हो गई है। आरम प्रतिबोध जयमाल' में अपन कड़वक प्रयुक्त हुए हैं। गीतों में दो-तीन अन्य छन्द भी प्रयुक्त हुए हैं। यथा
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