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"हिरण्यवर्णः स्वर्णाभः शातकुम्भनिभप्रभः ।" जिनेन्द्र पूजापाठ की ऋषभपूजा में भी उन्हें 'काञ्चनच्छायः' कहा गया है।
हिरण्यगर्म की निरुक्ति करते समय सायण ने कहा है कि "हिरण्मयस्य गर्भस्याण्डभूतः प्रजापतिहिरण्यगर्भः" अर्थात् जो प्रजापति गर्भरूप में स्वर्ण के अण्डे के समान था। सायण की यह हिरण्यगर्भ की निरुक्ति ऋषभदेव के हिरण्यवर्ण होने के कारण उपयुक्त बैठ जाती है। हिरण्यगर्भ के विश्लेषण में सायण ने ही 'हिरण्यरूप' की निरुक्ति इस प्रकार की है
'रूप्यत इति रूपं शरीरं, सुवर्णमयशरीरो वा हिरण्यरूपः' नवीं शताब्दी के प्रसिद्ध नाटककार हस्तिमल्ल ने सुभद्रा नाटिका में सुन्दरकाव्य शैली में हिरण्यगर्भ का वर्णन, विजयाध पर्वत के वर्णन के प्रसंग में इस प्रकार किया है
"हिरण्यगर्भप्रथमाभिषेककल्याणपीठस्य तनोति शोभाम् ।
क्षीरोदपूरस्नपितस्य गौरो रूप्याचलोऽयं कनकाचलस्य ॥" अर्थात् - रजतवर्ण का यह रूप्याचल (विजयार्धपर्वत) उस कनकाचल (मेरुपर्वत) की शोभा को धारण कर रहा है जो कि हिरण्यगर्भ (ऋषभदेव) के प्रथम अभिषेक की मंगलपीठिका बनकर क्षीरसागर के जल से स्नपित हो रहा है।
जैनेतर साहित्य में महाराज नाभिराय एवं तीर्थंकर ऋषभदेव श्रीमद्भागवत में जैन धर्म के आद्यतीर्थंकर श्री ऋषभदेव जी को ईश्वर का अवतार माना गया है। इस रोचक कथा में भी शुकदेव एवं राजा परीक्षित के सम्वाद में यह प्रकरण आया है कि आग्नीध्र के पुत्र नाभि के कोई सन्तान नहीं थी। इसलिए उन्होंने अपनी भार्या मरुदेवी के साथ पुत्र की कामना से एकाग्रतापूर्वक भगवान यज्ञपुरुष की विशेष समाराधना एवं पूजा के निमित्त विशेष आयोजन किया था। पूजन में मनोयोग से तल्लीन ऋषिगण ने नाभि की यज्ञशाला में प्रकट हुए भगवान का स्तवन करने के उपरान्त प्रदत्त वरों से जीवन को सार्थक करने के लिए इस प्रकार की याचना की, "हम आपसे यही वर मांगते हैं कि गिरने, ठोकर खाने, छींकने अथवा जम्हाई लेने और संकटादि के समय एवं ज्वर व मरणादिक की अवस्थाओं में आपका स्मरण न हो सकने पर भी किसी प्रकार आपके सकल कलिमल विनाशक 'भक्तवत्सल', 'दीनबन्धु' आदि गुण-द्योतक नामों का हम उच्चारण कर सकें।" साथ-ही-साथ उन महात्माओं ने अत्यन्त दीन होकर अपने आशय को प्रार्थना रूप में निवेदित करते हुए सम्मिलित रूप से यह याचना की, "हमारे यजमान ये राजर्षि नाभि सन्तान को ही परम पुरुषार्थ मानकर आप ही के समान पुत्र पाने के लिए आपकी आराधना कर रहे हैं। हे देव ! आप भक्तों के बड़े-बड़े काम कर देते हैं । हम मन्दमतियों ने कामनावश इस तुच्छ कार्य के लिए आपका आवाहन किया, यह आपका अनादर ही है। किन्तु आप समदर्शी हैं । अतः हम अज्ञानियों की धृष्टता को आप क्षमा करें।"
ऋषियों की याचना पर भगवान ने कहा, "ऋषियो! बड़े असमंजस की बात हैं । मेरे समान तो मैं ही हूँ क्योंकि मैं अद्वितीय हूं। तो भी ब्राह्मणों का वचन मिथ्या न होना चाहिए, द्विजकुल मेरा ही तो मुख है। इसलिए मैं स्वयं ही अपनी अंशकला से आग्नीघ्रनन्दन नाभि के यहां अवतार लूंगा क्योंकि अपने समान मुझे कोई और दिखाई ही नहीं देता।" श्री शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को कथा सुनाते हुए कहा कि इस प्रकार महारानी मरुदेवी के सामने ही उसके पति से इस प्रकार कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए, और महारानी मरुदेवी के गर्भ से दिगम्बर संन्यासी ऊर्ध्वरेता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिए सत्त्वमय विग्रह से प्रकट हुए।
अपने सुपुत्र श्री ऋषभदेव जी के गुणों से प्रभावित होकर महाराज नाभि ने उनको राज्याभिषिक्त कर दिया और वह स्वयं अपनी पत्नी मरुदेवी सहित बदरिकाश्रम को चले गए। वहां अहिंसा वृत्ति से कठोर तपस्या और समाधि योग के द्वारा भगवान का स्मरण करते हुए उन्हीं के स्वरूप में लीन हो गए।"
[-आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज द्वारा सम्पादित भरतेश वैभव, प्र०भा० में 'श्रीमद् भागवत में ऋषभदेव तीर्थकर' के आधार पर --सम्पादक]
१. जिनसहस्रनाम, त्रिकाल. ६
जैन धर्म एवं आचार
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