________________
जैन योग-परंपरा में क्लेश-मीमांसा
कु० अरुणा आनन्द
क्लिश्नन्तीति क्लेशा :-इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिनसे प्राणियों को दुःख प्राप्त होता है, वे 'क्लेश' कहे जाते हैं । जैसे ईश्वर के विभिन्न नाम विभिन्न दर्शनों में वणित हैं, वैसे ही संसार के कारणभूत पदार्थ भी विभिन्न नामों से कथित हैं जो वेदान्त में अविद्या, सांख्ययोग में क्लेश, बौद्धों में वासना, शैवों में पाश, तथा जैनों में ज्ञानावरणीयादि कमों के नाम से जाने जाते हैं। इनमें संज्ञा के भेद को लेकर ही
महर्षि पतञ्जलि के मत में दुःख का कारण अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश रूप पांच क्लेश हैं। . अविद्या
आ० यशोविजय जी ने मिथ्यात्व को ही अविद्या कहा है।' स्थानांग सूत्र में मिथ्यात्व के दस प्रकार बताए गए हैं-अधर्म में धर्म मानना, धर्म में अधर्म मानना, अमार्ग में मार्ग मानना, मार्ग में अमार्ग मानना, असाधु को साधु समझना, साधु को असाधु समझना, अजीव को जीव समझना, जीव को अजीव समझना, अयुक्त को युक्त समझना, युक्त को अयुक्त समझना। अस्मिता
दृक् शक्ति एवं दर्शन-शक्ति में जो अभिन्नता दृष्टिगत होती है उसे 'अस्मिता' कहते हैं। अर्थात् दृश्य में द्रष्टा का आरोप, और द्रष्टा में दृश्य का आरोप 'अस्मिता' है। आ० यशोविजयजी ने दोनों का अन्तर्भाव मिथ्यात्व में ही कर दिया है।' आ० यशोविजय जी का यह भी मत है कि यदि 'अस्मिता' को अहंकार और ममकार का बीज मान लें तो अस्मिता का राग-द्वेष में अन्तर्भाव हो जायेगा।' राग-द्वेष
सुख-भोग के अनन्तर अन्त:करण में रहने वाली तद्विषयक तृष्णा ही राग है।'५ तथा दुःख के प्रति दुःखनाशविषयक प्रतिकूल भावना द्वेष है। आ० यशोविजयजी ने राग-द्वेष दोनों को कषाय के ही भेद माना है। जैनमतानुसार जिनके द्वारा संसार की प्राप्ति होती है-वे कषाय हैं। कषाय के दो भेद होते हैं राग और द्वेष। क्रोध और मान-ये दोनों द्वेष हैं तथा मान और लोभ ये दोनों राग हैं। राग और द्वेष के कारण ही मनुष्य अष्टविध कर्मों के बंधन में बंधता है। अभिनिवेश
प्रत्येक प्राणी में स्वाभाविक रूप से विद्यमान मृत्यु का भय विद्वानों के लिए भी वैसा ही है, जैसाकि मूों के लिए। यही अभिनिवेश है। यशोविजय ने इसे भय संज्ञा का नाम दिया है। जैनदर्शन के अनुसार क्षुद्र प्राणी से लेकर मनुष्य व देव तक सभी संसारी जीवों में
१. अनाविद्या स्थानांगोक्तं दशविधं मिथ्यात्वमेव । (य० व० स०२/8) २. दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवा स्मिता (पा० यो० सू०२/६) ३. अस्मिताया अदृश्ये (श्च दृश्ये)दृगारोपरूपत्वे चान्तर्भाव ; (य.५०, सू०२/६) ४. अहंकारममकारबीजरूपत्वे तु रागद्वेषान्तर्भाव इति (य. वृ० सू० २/६) ५. सुखानुशयी रागः । (पा० यो० सू०२/७) ६. दुःखानुशयी द्वेषः। (पा.यो. सू २/८) ७. रागद्वेषो कषायभेदा एव (य०व० सं० २/९) ८. स्वरसवाही विदुषोऽपि तथाढ़ोऽभिनिवेशः (पा.यो. सू० २/९)
जैन धर्म एवं आचार
१२१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org