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सिन्धु सभ्यता के महान् अन्वेषक सर जॉन मार्शल का यह विश्वास रहा है कि सिन्धु संस्कृति यज्ञ प्रधान वैदिक संस्कृति से सर्वथा भिन्न रही है। उन्होंने मोहनजोदड़ो से प्राप्त कुछ मुहरों पर जैन प्रभाव को इंगित करते हुए लिखा है कि तीन मुहरों पर जैन तीर्थकरों की कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े विवस्त्र वृक्ष देवता दिखाई देते हैं।
सिन्धु सभ्यता का समुचित विश्लेषण करने के लिए स्वतन्त्र भारत में कुशल पुराविदों की देखरेख में विशेष उत्खनन कार्य हुआ है। भारतीय पुराविदों ने लगभग ७०० ऐसे स्थलों की जानकारी दी है जिनका महत्त्व हड़प्पा या मोहनजोदड़ो से कम नहीं है। नवीनतम शोधों के अनुसार सिन्धु सभ्यता से प्रभावित भौगोलिक परिधि की सीमाओं में अत्यधिक विस्तार हुआ है। देश-विदेश के अनेक भाषाविज्ञ पुराशास्त्री अब ५ हजार से अधिक की संख्या में प्राप्त अभिलेखों का वैज्ञानिक एवं तुलनात्मक अध्ययन कर रहे हैं।
___ सोवियत संघ में प्रो० क्नोरोजोन के नेतृत्व में हड़प्पा के पुरालेखों का वैज्ञानिक अध्ययन करने के उपरान्त यह निष्कर्ष निकला है कि हड़प्पाकालीन लेखों की भाषा प्राक् द्रविड़ है । रूसी विद्वान् ग० बोंदार्ग एवं अ०विगासिन ने सोवियत अनुसन्धानों के आधार पर स्वीकार किया है
-"द्रविड़ भाषी समष्टि के विघटन से पहले उच्चत: विकसित कृषि से तथा पशुपालन से भी परिचित थे। सामान्य द्रविड़ शब्द भंडार में कृषि प्रक्रिया के सभी प्रमुख चरणों से संबंधित शब्द-जुताई, बुवाई,कटाई, ओसाई आदि हैं। निस्संदेह विकसित कृषि शब्दावली का होना सामान्य द्रविड़ काल में द्रविड़ कबीलों के जीवन में कृषि की प्रमुख भूमिका को इंगित करता है।" सिन्धु घाटी में कृषि प्रधान समाज की स्थिति को देखकर जैनधर्म के आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रस्थापित मानव संस्कृति के प्रथम चरण की याद आ जाती है। उनके सत्प्रयास से ही मानवजाति ने कर्मयुग के आरम्भ में पशु-पालन एवं कृषि का सर्वप्रथम प्रयोग किया था। सिन्धु लिपि के अनावरण से पूर्व सिन्धु घाटी की सभ्यता के सम्बन्ध में अधिकारपूर्वक कुछ भी कहना असंगत है। सोवियत् विद्वान् ग० बोंदार्ग एवं अ० विगासिन ने सत्य ही कहा है-"जब तक हड़प्पा की मुद्राओं का रहस्य नहीं खुलता, तब तक हड़प्पा समाज के स्वरूप के बारे में पूरी तरह कुछ कहना असम्भव है । इस संस्कृति के उद्भव, आबादी की नृजातीय उत्पत्ति और धार्मिक विश्वासों आदि के बारे में सिद्धान्त अत्यधिक एकतरफा और प्राक्कल्पनात्मक लगते हैं।"२ सोवियत संघ में हुए शोधकार्य के आधार पर लेखक-द्वय ने अपनी मान्यता को अभिव्यक्त करते हुए कहा है-"हड़प्पा लेखों के अध्ययन के लिए सोवियत संघ में जो शोधकार्य हुआ है, उससे यह कहने का आधार मिलता है कि हड़प्पा परम्पराओं का बौद्ध, हिन्दू, जैन धर्मों पर, नगरों के निर्माण पर, उससे कहीं बाद के प्राचीन भारतीय समाज के सामाजिक ढांचे पर काफी प्रभाव पड़ा।"3
जैन धर्म में मूर्ति पूजा की अवधारणा पौराणिक युग से चली आ रही है। सिन्धु घाटी में जैन मूर्ति पूजा के प्रसंग पर विचार करते हुए एलाचार्य मनि विद्यानन्द जी ने अपने एक निबन्ध 'मोहनजोदड़ो : परम्परा और प्रभाव' में पर्याप्त प्रकाश डाला है। एक साहित्यिक अभिलेख के आधार पर डॉ० उमाकान्त प्रेमानन्द शाह द्वारा प्रदत्त जानकारी के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भगवान् महावीर की चन्दनकाष्ठनिर्मित जीवन्तस्वामी की प्रतिमा का प्रचलन तीर्थकर महावीर के युग में ही हो गया था। उदयगिरि की हाथी गुम्फा से प्राप्त एक अत्यन्त प्राचीन अभिलेख (मौर्यकाल १६५वां वर्ष) के आधार पर जैन समाज में प्रचलित मूर्ति पूजा के सम्बन्ध में ऐतिहासिक सामग्री मिलती है। विश्वप्रसिद्ध इस अभिलेख का कुछ अंश इस प्रकार है
"मगधानं च विपुल भयं जनेतो हथिसु गंगाय पाययति (I) मागधं च राजानं वहसतिमितं पादे वंदापति (I) नंदराज नीतं च कलिंगजिन-संनिवेसं गहरतनाथ पडिहारेहि अंगमागध-वसुं च नेयति (1)
अर्थात् सम्राट् खारवेल अपने राज्य के बारहवें वर्ष में और मगध के निवासियों में विपुल भय उत्पन्न करते हुए उसने अपने हाथियों को गंगा पार कराया और मगध के राजा वृहस्पतिमित्र से अपने चरणों की वन्दना कराई-(वह) कलिंग जिन की मूर्ति को जिसे नन्दराज ले गया था, घर लौटा लाया और अंग और मगध की अमूल्य वस्तुओं को भी ले आया। अभिलेख के इस अंश का विश्लेषण करने से ज्ञात होता है कि मगधाधिपति नन्दराज (४२४ ई० पू०) ने कलिंग को पराजित किया था और वे कलिंग जिन की मूर्ति को मगध ले गए थे। कलिंगाधिपति सम्राट खारवेल ने कलिंग जिन की प्रतिमा को वापिस लाने के लिए अपने राज्य के १२वें वर्ष में मगध पर चढ़ाई की। युद्ध में मगधाधिपति वृहस्पतिमित्र को पराजित करके चेदि सम्राट् खारवेल कलिंग जिन की मूर्ति को अपने राज्य में वापिस ले आए। इस अभिलेख से यह भी प्रतीत होता है कि पुरातन काल से कलिंग जिन की जैन तीर्थंकर प्रतिमा कलिंग राज्य के स्वाभिमान का प्रतीक रही होगी। इस अभिलेख से जैन मूर्तिकला की प्राचीनता ऐतिहासिक रूप से सिद्ध होती है।
पाटलिपुत्र (लोहानीपुर) में नाले के निकट की खुदाई से प्राप्त शिरविहीन प्रतिमा को तीर्थंकर की प्राचीनतम प्रतिमा कहा जाता है।
१-३. ग० बोंदार्ग लेविन एवं अ० विगासिन, भारत की छवि, पृ०२६१, २५३, २५६ ४. जैन शिलालेख संग्रह भाग 2, शिलालेख सं० 2
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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