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मतियों को दिखलाया। एक ठोस मन्दिर प्रतीक के चारों ओर नंगी मूर्तियों के बारे में पूछने पर उन्होंने हँसकर कहा-जैन मूर्ति है। पुरातत्व की वस्तुओं और मूर्तिकला से यह पहिला साक्षात्कार था।" भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र और पं० राहुल सांकृत्यायन जैसे दिग्गज विद्वानों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से अवलोकित जैन पुरातात्विक सम्पदा के दर्शन अब दुर्लभ हो गए हैं। प्राचीन मूर्तियों के राष्ट्र विरोधी तस्करों ने सांस्कृतिक वैभव के केन्द्रों को ध्वस्त-सा कर दिया है।
१० फरवरी १९८७ को दैनिक जनसत्ता में केन्द्रीय जांच ब्यूरो द्वारा पकड़ी गई करोड़ों रुपये के मूल्य की मूर्तियों के चित्र को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि देश के पर्वतीय मन्दिरों और निर्जन स्थानों पर स्थित जैन कलाकृतियां अब सुरक्षित नहीं हैं । ८ जन १६८६ को जनसत्ता में प्रकाशित 'चम्बलघाटी का एक और चेहरा' में भी श्री आलोक तोमर ने इसी व्यथा को प्रकट करते हुए श्योपुर के जंगल और महागांव के निर्जन प्रदेश में स्थित जैन मूर्ति समूह की सुरक्षा के सम्बन्ध में सुधी पाठकों का सफलतापूर्वक ध्यान आकर्षित किया है। प्राचीन कलाकृतियों की निरन्तर चोरी अथवा तस्करी से राष्ट्र में असन्तोष पनप रहा है। जनसामान्य के रोष की अभिव्यक्ति को स्वर देते हुए जनसत्ता ने १६ जनवरी १९८७ को 'बड़े चोर' शीर्षक सम्पादकीय में इस समस्या के अनेक पक्षों पर प्रकाश डाला है। विद्वान् सम्पादक ने राष्ट्र की निधियों की तस्करी एवं उपेक्षा करने वाले पदाधिकारियों की निन्दा करते हुए कहा है-"भारत से पुरानी कलाकृतियां उड़ा ले जाने का धंधा इतने जोरों से चलता है कि परिचमी-बलिन में सिर्फ भारतीय चित्रों को रखने के लिए अलग से एक अजायबघर बनाया गया है । अमेरिका में बास्टन, फिलेडेल्फिया, क्लीवलेंड, शिकागो और वाशिंगटन के अजायबघरों में भारत की अनेक अमूल्य कलाकृतियां देखी जा सकती हैं। विदेश के निजी शौकीनों के घरों में भारत की कितनी कलाकृतियाँ पहुँची होंगी इसका तो हिसाब ही नहीं हो सकता। देश की कला-सम्पदा का जो हिस्सा विदेश जाने से बच जाता है वह देश के ही ऊचे अफसरों और अमीरों के घरों की शोभा बढ़ाने के काम आता है । अक्सर बड़े लोगों के घरों में प्राचीन कलाकृतियों के बढिया संग्रह पाए जाते हैं। ये कलाकृतियां अपनी अफसरी का इस्तेमाल करते हुए या तो यूं ही पुरातात्विक महत्त्व की जगहों से उठा ली गई हैं या फिर किसी छोटे महन्त, पुजारी या चोर से लगभग मुफ्त में खरीदी गई हैं। वैसे कलाकृतियों की बड़ी चोरियों में भी अक्सर बड़े प्रतिष्ठित लोग ही लिप्त पाए गए हैं। लगता है कि देश के बड़े लोगों को आजकल देश की कला सम्पदा बिकाऊ दिखती है।"
वस्तुतः किसी भी राष्ट्र और समाज के उत्थान में उसका गौरवमय अतीत एक प्रेरणास्रोत का कार्य करता है। विश्व के सभी धम अपनी पर्व परम्परा से हीप्राणशक्ति एवं नीति निर्देशक सिद्धान्त प्राप्त करते हैं । अत: प्रत्येक समाज का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने पूर्वजों द्वारा प्रदत्त सांस्कृतिक उत्तराधिकार के संरक्षण एवं विकास के लिए सदैव सजग रहे । इतिहास के विशद अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि जो समाज अपने अतीत, पूर्व परम्पराओं, साहित्य, दर्शन इत्यादि से प्रेरणा ग्रहण नहीं करता, वह शीघ्र ही काल कवलित हो जाता है। अतः भारतवर्ष के जैन समाज को अपने धर्म में निहित महान् मूल्यों के संरक्षण, प्रचार-प्रसार आदि के लिए विशेष उपक्रम करना चाहिए। जैन धर्म की उदार विश्वपोषक नीति के कारण अनेक महानुभावों ने जैन समाज को परामर्श के रूप में अपनी महान् ऐतिहासिक परम्पराओं के संरक्षण एवं विकास के लिए सहृदयता से उपयोगी सुझाव दिए हैं। सुप्रसिद्ध प्राच्यविद्या विशेषज्ञ डॉ० वेन्सेन्ट ए० स्मिथ ने तो इस सन्दर्भ में 'पुरातत्व की शोध जनों का कर्तव्य' नामक निबन्ध लिखकर जैन समाज से यह अपेक्षा की थी कि वह एक प्रभावशाली समिति का गठन कर अपनी ऐतिहासिक सामग्री से विश्व को परिचित कराए। डॉ. स्मिथ ने प्रस्तावित समिति के लिए कुछ शोध सम्बन्धी कार्यक्रमों की रूपरेखा इस प्रकार प्रस्तुत की थी(अ) जैनों के अधिकार में बड़े-बड़े पुस्तकालय (भण्डार) हैं जिनकी रक्षा करने में वे बड़ा परिश्रम करते हैं। इन पुस्तकालयों में बहमूल्य
साहित्य भरा पड़ा है जिनकी खोज अभी बहुत कम हुई है। जैन ग्रंथ खासतौर पर ऐतिहासिक और अर्ध-ऐतिहासिक सामग्री से परिपूर्ण हैं । इतिहास की दृष्टि से अब जैन ग्रन्थों का मूल्यांकन होना चाहिए।
(आ) प्राचीन काल में महावीर स्वामी का धर्म आजकल की अपेक्षा बहुत दूर-दूर तक फैला हुआ था। एक उदाहरण लीजिए-जैन धर्म के
अनुयायी पटना के उत्तर वैशाली में और पूर्व बंगाल में आजकल बहुत कम हैं; परन्तु ईसा की सातवीं शती में इन स्थानों में उनकी संख्या बहत ज्यादा थी। मैंने इस बात के बहत-से प्रमाण अपनी आँखों से देखे हैं कि बंदेलखंड में मध्यकाल में और विशेष कर ग्यारहवीं
और बारहवीं शतियों में जैन धर्म की विजय-पताका खूब फहरा रही थी। इस देश में ऐसे स्थानों पर जैन मूर्तियों का बाहल्य है, जहां पर अब एक भी जैनी नहीं दिखता। दक्षिण और तमिल देशों में ऐसे अनेक प्रदेश हैं जिनमें जैन धर्म सदियों तक एक प्रभावशाली राष्टधर्म रह चुका है किन्तु वहां अब उसका कोई नाम तक नहीं जानता।
(इ) चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय में प्रचलित कथा पर मि० ल इस राइस और डॉ० फ्लीट के वादविवाद का रोचक विवरण देते हुए उन्होंने
कहा है कि --अब समय आ गया है कि कोई जैन विद्वान् कदम बढ़ावे और इस पर अपनी दृष्टि से वाद-विवाद करे । परन्तु इस काम के लिए एक वास्तविक विद्वान् की आवश्यकता है, जो ज्ञानपूर्वक विवाद करे, ऊटपटांग बातों से काम नहीं चलेगा । आजकल की विद्वत्
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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