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भी सांस्कृतिक पीठिका पर यह एक है, इसकी एकता असंदिग्ध है। विन्सेंट स्मिथ ने 'हिन्दुस्तान का इतिहास' में इस तथ्य को उद्घाटित करते हुए लिखा है कि "निस्संदेह भारत में एक ऐसी गहरी मूलभूत एकता है जो भौगोलिक पार्थक्य अथवा राजनीतिक शासन से निर्मित एकता से कहीं अधिक गहन एवं गंभीर है।" यह एकता रक्त, रंग, भाषा, वेशभूषा, रीति-रिवाज, धर्म-संप्रदाय की अनेकानेक भिन्नताओं का अतिक्रमण करके बहुत ऊंची उठ जाती है। भारतीय संस्कृति के मूलभूत उपादानों में मानव को प्रमुख स्थान पर रखकर उसके विकास का चिंतन है। इस दृष्टि से मानव को सर्वश्रेष्ठ मानकर समस्त क्रिया-कलाप और सांस्कृतिक अनुष्ठान उसी के निमित्त किए जाने चाहिए, ऐसी मान्यता हमारी संस्कृति में प्रारम्भ से व्याप्त रही है। समस्त विश्व की मंगलकामना भी हमारी संस्कृति की आधारशिला है। 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्' में इसी कामना को व्यक्त किया गया है। ईशोपनिषद् में यही भाव दूसरे शब्दों में व्यक्त किया गया है, "जो व्यक्ति समस्त प्राणियों को आत्मा में और आत्मा को समस्त प्राणियों में देखता है वह किसी से घृणा नहीं करता।" अर्थात् मानव ही नहीं, समस्त प्राणियों के प्रति रागात्मक संबंध रखने का उपदेश 'भारतीय चिंतन' में वैदिक काल से रहा है। मानवात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए ही 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारणा भारतीय संस्कृति में है।
भारतीय संस्कृति व्यक्ति के आध्यात्मिक तथा आधिभौतिक विकास को समानान्तर रूप से स्वीकार करती है। प्रत्येक व्यक्ति अपने को स्वतंत्र एकांश मानकर पहले अपना परिष्कार करे, तदनंतर समाज को स्वस्थ दिशा देने का प्रयास करे। व्यष्टि-निर्माण के बिना समाज-निर्माण की कल्पना करना मूल को छोड़कर पत्तियों और शाखाओं को सींचना है। यदि व्यक्ति के निजी जीवन में आचरण की पवित्रता नहीं है और मनसा, वाचा, कर्मणा वह सत्य की प्रतिष्ठा नहीं करता, तो वह सुसंस्कृत समाज का निर्माण कभी नहीं कर सकता। जो व्यक्ति मन, वचन और कर्म में साम्य नहीं रखता, उसे विद्वान् होने पर भी दंभी, धनवान होने पर भी लोभी, कुलीन होने पर भी अकुलीन ससझा जाता है। अतः संस्कृति का धन, वैभव, ऐश्वर्य, प्रभुता, पांडित्य, आभिजात्य, मान-सम्मान के साथ अनिवार्य संबंध नहीं है।
भारतीय संस्कृति में आत्म का विगलन और परात्म का पोषण है। अर्थात् स्वसुख-भोग की कामना से रहित होकर समाज को सुखी बनाने के प्रयत्न में संलग्न व्यक्ति सुसंस्कृत है। सुसंस्कृत व्यक्ति को ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिसे वह अपने प्रति सहन नहीं कर सकता । 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्' में इसी उदात्त आशय को व्यक्त किया गया है । व्यक्ति को सुसंस्कृत होने के लिए आत्मसंयम, अपरिग्रह, तितिक्षा, करुणा, अहिंसा, सत्य, सेवा, त्याग, समता, प्रेम और समन्वय की आवश्यकता है। जो व्यक्ति दूसरों के लिए अर्थात् समाज के लिए अधिक से अधिक कष्ट उठाकर जीवन-यापन करने में विश्वास करता है वह अपरिग्रही तो होता ही है, आत्मदमन के साथ निरीह और निःस्वार्थ भी होता है। इसीलिए परदुःखकातर होना--परायी पीड़ा को समझना वैष्णव संस्कृति का विशिष्ट तत्त्व ठहराया गया है । वास्तव में यह भाव भारतीय संस्कृति के मूल में ही व्याप्त रहा है। रामायण और महाभारत जो प्राचीन भारतीय संस्कृति के संवाहक महाकाव्य हैं, आज भी इसीलिए समादृत हैं कि उनमें इस कोटि के चरित्रों की अवतारणा की गई है जिन्हें आज भी हम जाति, देश, काल की सीमाओं से ऊपर उठकर संस्कृति के मानदंड के रूप में स्वीकार कर सकते हैं। दुष्कृति का विनाश, सुकृति की रक्षा, धर्म की संस्थापना आदि विशेषण उन्हीं महापुरुषों के लिए प्रयुक्त होते हैं जो संस्कृति के यान को युग-युगों तक बढ़ाते लाए हैं। आज के युग में भी महान वैज्ञानिकों का मानवता के कल्याण के लिए आत्म-बलिदान, राजनीतिज्ञों का राष्ट्र के लिए उत्सर्ग, समाज-सुधारकों का समाज के लिए नि:स्वार्थ भाव से समर्पण और साहित्यकारों तथा विचारकों के मानव की विचारधारा के परिष्कार के लिए किए गए रचनात्मक प्रयत्न, संस्कृति-विकास की परंपरा में आने वाले अनुकरणीय कार्य हैं। इन्हीं से राष्ट्रीय संस्कृति बनती है।
भारतीय संस्कृति शब्द का प्रयोग करने पर यह प्रश्न अनेक बार उठाया गया है कि क्या किसी देश और जाति की अपनी भिन्न संस्कृति होती है जो किसी और देश की नहीं हो सकती ? क्या भौगोलिक परिवेश एवं सामाजिक परिस्थितियों से राष्ट्रीय अथवा जातीय संस्कृतियों का निर्माण होता है ? इन प्रश्नों का आशय यही है कि यदि भारतीय राष्ट्रीय संस्कृति जैसी कोई संस्कृति है तो क्या वह मानव-संस्कृति या विश्व-संस्कृति से भिन्न, कुछ सीमित संस्कृति है ? इस प्रश्न के उत्तर में मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि संस्कृतियों के निर्माण में एक सीमा तक देश और जाति का योगदान रहता है । संस्कृति के मूल उपादान तो प्रायः सभी सुसंस्कृत और सभ्य देशों के एक सीमा तक समान रहते हैं किंतु बाह्य उपादानों में अंतर अवश्य आता है। राष्ट्रीय या जातीय संस्कृति का सबसे बड़ा योगदान यही है कि वह हमें अपने राष्ट्र की परंपरा से संपृक्त बनाती है, अपनी रीति-नीति की संपदा से विच्छिन्न नहीं होने देती। आज के युग में राष्ट्रीय एवं जातीय संस्कृतियों के मिलन के अवसर अति सुलभ हो गए हैं, संस्कृतियों का पारस्परिक संघर्ष भी शुरू हो गया है। कुछ ऐसे विदेशी प्रभाव हमारे देश पर पड़ रहे हैं जिनके आतंक ने हमें स्वयं अपनी संस्कृति के प्रति संशयालु बना दिया है। हमारी आस्था डिगने लगी है। यह हमारी वैचारिक दुर्बलता का पक्ष है। अपनी संस्कृति को छोड़,
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्य
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