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यह भी काश्यप गोत्री हैं । ज्ञातृ लोग क्षत्रिय थे, और यह अपने को भूमिधर ब्राह्मण कहते हैं, यह भेद जरूर है जिसका समाधान मुश्किल नहीं है।'
बंगाल राज्य में प्राप्त जैन अवशेषों के परिधि क्षेत्र के अन्तर्गत निवास करने वाली जातियों का विश्लेषण करते हुए श्री सरसी कुमार सरस्वती ने अपना मत इस प्रकार प्रस्तुत किया है-बंगाल में जैन अवशेष उन स्थानों से प्राप्त हुए हैं जहां कभी जैन मंदिर या संस्थान आदि रहे थे। यह उल्लेखनीय है कि यह क्षेत्र बहुत लम्बे समय से उन लोगों का निवास स्थान रहा है जिन्हें 'शराक' नाम से जाना जाता है । ये लोग कृषि पर निर्भर करते हैं तथा कट्टर रूप से अहिंसावादी हैं । आज इन लोगों ने हिन्दू धर्म अपना लिया है । रिसले ने अपनी पुस्तक 'ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स आफ बंगाल' में बताया है कि लोहरडागा के शराक आज भी पार्श्वनाथ को अपना एक विशेष देवता मानते हैं तथा यह भी मान्य है कि इस जनजाति का 'शराक' नाम धावक से बना है, जिसका अर्थ जैन धर्म के अनुयायी गृहस्थ से है। ये पूर्वोक्त समस्त साक्ष्य संकेत देते हैं कि शराक मूलतः श्रावक थे; इस बात का समर्थन उनकी परंपराएं भी करती हैं। इस सर्वेक्षण से यह भी ज्ञात होता है कि जैन धर्म पूर्व भारत में एक सुगठित समुदाय के रूप में रहा है जिसके संरक्षक शराकवंशीय मुखिया होते थे।
जैन धर्म के सांस्कृतिक प्रभाव का विश्लेषण करने के लिए किसी समर्थ मुनि अथवा श्रावक दल को भगवान् महावीर स्वामी की पदयात्रा के पथ (जैन धर्मग्रन्थों में तीर्थंकर महावीर स्वामी के चातुर्मास का विवरण विस्तार सहित मिलता है) का अनुगमन करके सूक्ष्म सर्वेक्षण करना अथवा कराना चाहिए।
भारतवर्ष के जैन समाज के पास अन्य धर्मानुयायियों की अपेक्षा बड़ी संख्या में ऐतिहासिक अभिलेख सुरक्षित हैं। इन अभिलेखों के द्वारा भारतीय इतिहास की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। १६६६ ई० में विदिशा नगर के निकट बेस नदी के तटवर्ती टीले की खुदाई से प्राप्त तीर्थकर चन्द्रप्रभु की चरणचौकी के लेख से गप्तकालीन सम्राट रामगुप्त की ऐतिहासिकता सिद्ध हो गई है। यह लेख इस प्रकार है----"चन्द्रप्रभस्य प्रतिमेयं कारिता महाराजाधिराज श्री रामगुप्तेन उपदेशात पाणि-पात्रिक-चन्द्रक्षमाचार्य-श्रमण-श्रमण-प्रशिष्य आचार्य संघसेन श्रमण शिष्यस्य गोलक्वान्त्या-सत्पुजस्य चेलू-श्रमण स्येति ।"
इन अभिलेखों के द्वारा जैन इतिहास, कला और संस्कृति का अधिकारपूर्वक विवेचन किया जा सकता है। खेदपूर्वक कहना पड़ रहा है कि भारतवर्ष के जैन समाज ने अपनी सांस्कृतिक सम्पदा के इस अनमोल खजाने की बड़ी उपेक्षा की है। देश-विदेश के विद्वानों के सतत् परिश्रम के परिणामस्वरूप अनेक जैन अभिलेख प्रकाश में आ पाए हैं। महान प्राच्यविद्या विशेषज्ञ लुइस राईस के अनथक प्रयास से मैसूर राज्य के जैन अभिलेख प्रकाश में आए हैं। अभिलेखों की पांडुलिपि बनाना और उसे पढ़ना वास्तव में एक श्रमसाध्य कार्य है । हाथी गुम्फा से प्राप्त जैन सम्राट् खारवेल से सम्बन्धित प्राकृत अभिलेख का पाठ लगभग एक शताब्दी की समर्पित साधना से निश्चित हो पाया है। हाथी गुम्फा का यह अभिलेख सन् १८२७ ई० में स्टलिंग महोदय को प्राप्त हुआ था। सर्वश्री स्टलिंग, जेम्स प्रिन्सेस, जनरल कनिंघम, राजेन्द्रलाल मित्र, भगवान लाल इन्द्र जी, राखालदास बनर्जी, काशीप्रसाद जायसवाल प्रभृति विद्वानों के निरन्तर शोधपूर्ण उपक्रमों की परम्परा को विकसित करते हुए डॉ० वेणीप्रसाद माधव ने प्रस्तुत लेख का पाठ निश्चित करते हुए ३०० पृष्ठों में 'ओल्ड ब्राह्मी इन्सक्रिप्सन्स' नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया है। देश-विदेश की पत्रिकाओं में प्रकाशित जैन अभिलेखों, जिनका अधिकांश पाठ रोमन लिपि में है, के आधार पर जैन शिलालेख संग्रह भाग १ से ५ तक का प्रकाशन भी हुआ है। इस प्रकार के अनुष्ठान में सक्रिय रुचि लेने के लिए सर्वश्री नाथूराम प्रेमी, डॉ० हीरालाल, पं० विजयमूर्ति शास्त्राचार्य, डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी प्रभृति विद्वान् साधुवाद के पात्र हैं। साधन सम्पन्न जैन समाज की अखिल भारतीय संस्थाओं को इस संदर्भ में सक्रिय रुचि लेनी चाहिए। प्राचीन जैन अभिलेखों के पुनर्मूल्यांकन के लिए भारतीय पुरालिपियों के अध्ययन की विशेष व्यवस्था भी होनी चाहिए।
देश के विभिन्न भागों में हो रहे उत्खननों अथवा अन्य सूत्रों से प्राप्त जैन पुरातात्विक सामग्री के प्रदर्शन के लिए राष्ट्रीय एवं राजकीय संग्रहालयों में पृथक् से गैलरी होनी चाहिए । शिक्षा मन्त्रालय और पुरातत्व विभाग को प्रतिवर्ष देश-विदेश से प्राप्त अथवा जानकारी में आए हुए जैन अवशेषों की जानकारी के लिए स्वतन्त्र रूप से पत्रिका प्रकाशित करनी चाहिए। इस प्रकार की पत्रिका में पुरातात्विक सामग्री के चित्र एवं लेख की प्रतिलिपि भी होनी चाहिए। भारतवर्ष के जैन समाज को भी इसी प्रकार अपने मन्दिरों की सांस्कृतिक सम्पदा से विश्व को परिचित कराने के लिए उपयोगी प्रकाशन करने चाहिए। इस संबंध में टाइम्स आफ इण्डिया द्वारा प्रकाशित 'पैनोरमा आफ जैन आर्ट
१. महापंडित राहुल सांकृत्यायन, मेरी जीवन यात्रा (छठा भाग) पृ० १३७
२. प्रो० सरसी कुमार सरस्वती, जैन कला एवं स्थापत्य-खंड २, पृ० २७७ जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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