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(५) जैन साहित्य को चार अनुयोगों (विषयों) में विभाजित किया गया है। एक अनुयोग के अन्तर्गत, सृष्टिविज्ञान-सम्बन्धी साहित्य का समावेश किया गया है। दिगम्बर परम्परा में यह अनुयोग 'करणानुयोग' के नाम से,' तथा श्वेताम्बर परम्परा में गणितानयोग' के रूप में प्रसिद्ध है।
(६) जैन पुराणों का वर्ण्य विषय सृष्टि-वर्णन भी है। स्वयं जिनेन्द्र देव ने त्रिलोक-स्वरूप का निरूपण किया है। पुराणों का परिगणन धर्मकथा' के अन्तर्गत किया जाता है। धर्मकथा को स्वाध्याय के रूप में 'तप' माना गया है। अत: पुराणादि-वणित सष्टि-विज्ञान की सामग्री के मनन का भी होना स्वाध्याय के अनुष्ठान से स्वाभाविक है।
सष्टि-विज्ञान की सामग्री से परिपूर्ण 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' तथा 'सूर्यप्रज्ञप्ति' का स्वाध्याय-काल प्रथम ब अंतिम पौरुषी में विहित माना गया है।
आ० पदमनन्दिकृत 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' (दिगम्बर ग्रन्थ) के अनुसार, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को पढ़ने व सनने वाला मोक्ष-गामी होता है। इस प्रकार, सृष्टि-विज्ञान-सम्बन्धी साहित्य का श्रवण-मनन आध्यात्मिक दृष्टि से उचित व अपेक्षित सिद्ध होता है।
(७) अंगप्रविष्ट जैन द्वादशांगी तथा अंगबाह्य साहित्य में सृष्टि-विज्ञान-सम्बन्धी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है। इसके अतिरन जैन आचार्यों ने सष्टि-निरूपण से सम्बन्धित अनेक स्वतंत्र ग्रन्थों की रचना की है। इन सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा में सृष्टि-विज्ञान का अध्ययन-अध्यापन अत्यन्त श्रद्धा व रुचि का विषय रहा है।
प्रस्तत शोध-पत्र में जैन आगमों में प्राप्त पृथ्वी-सम्बन्धी निरूपण को प्रस्तुत करते हुए आधुनिक विज्ञान के आलोक में उसका समीक्षण किया जा रहा है :(३) पृथ्वियों की संख्या
जैन परम्परा में पृथ्वियों की संख्या कहीं सात,", तो कहीं आठ" भी बताई गई है।
है आरक्षित ने (वि० सं० प्रथमशती) ने शिक्षार्थी श्रमणों की सुविधा के लिए आगम-पठन पद्धति का चार भागों में विभाजित किया (द्र० नन्दी थेरावली-२, गाथा-१२४)। विशेषावश्यकभाष्य-२२८६-२२६१, ___अनयोगों के नाम दिगम्बर-परम्परा में इस प्रकार हैं-(१) प्रथमानुयोग, (२) करणानुयोग, (३) चरणानयोग, (४) द्रव्यानुयोग । श्वेताम्बर-परम्परा में नाम इस प्रकार हैं-(१) चरणकरणानुयोग, (२) धर्म कथानुयोग, (३) गणितानुयोग, (४) द्रव्यानुयोग। (द्र० आवश्यकनियुक्ति-गा० ७७३-७४, सूत्रकृतांग चूणि, पत्र-४, आवश्यक-वृत्ति-पृ० ३०, रत्नकरंड
श्रावकाचार-४३-४६, द्रव्यसंग्रह-४२ पर-टीका २. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ११४३-४४, आदिपुराण-२६६, ३. आवश्यक-नियुक्ति-१२४, ४. त्रिजगत्समवस्थानं नरकप्रस्तरानपि । द्वीपाधि ह्रदशैलादीनप्यथास्मायुपादिशत (आदिपुराण-२४।१५७) । तिलोयपण्णत्ति१२९०,
जैन पुराणों का वर्ण्य विषय सृष्टि-वर्णन भी है-'जगत-त्रयनिवेशश्च त्रैकाल्यस्य च संग्रहः । जगतः सृष्टिसंहारौ चेति कृत्स्नमिहोद्यते' (आदिपुराण-२।११६) ।। हरिवंश पुराण-११७१, पद्मपुराण-११४३, ५. आदि पु० ११२४, १।६२-६३, १११०७-११६, पद्मपुराण-१।३६, ११२७, हरिवंशपुराण-१११२७, ६. द्र० त० सू० ६।२०, २५, भगवती आराधना-१०७, भगवतीसूत्र-२५.७।८०१, स्थानांग-५।३।५४१, मूलाचार
३६३, उत्तराध्ययन-३०।३४,२६२७, ७. स्थानांग-३।१।१३६, ८. जंबूद्दीवपण्णत्ति (दिग०)-१३/१५७ ९. द्रष्टव्य-सत्यशोध यात्रा (प्र० वर्द्धमान जैन पेढी, पालीताना), पृ० ४२-६६, १०. हरिवंश पु. ४/४३-४५, भगवती १० १२/३/१-२ (गोयमा, सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ)। स्थानांग-७/६६६ (२३-२४),
त्रिषष्टि० २।३।४८६, लोकप्रकाश-विनय-विजयगणि-रचित, १२।१६०-१६२, तिलोयपण्णत्ति-२२४, धवला-१४।५,६,६४ । गोयमा ! अट्ठ पुढवीओ पण्णत्ताओ । तं जहा–रयणप्पभा जाव ईसीपब्भारा' (भगवती सू० ६।८।१) । स्थानांग-८1८४१ (१०८) । प्रज्ञापनासूत्र-२१७६ (१)।
जैन धर्म एवं आचार
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