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जम्वृद्वीप के भरतादि क्षेत्रों के आर्यखण्डों में ३४ कर्मभूमियां हैं । भरत व ऐरावत में १-१, तथा विदेह क्षेत्र में ३२, इस प्रकार कुल कर्मभूमियों की संख्या चौंतीस हो जाती है। इसी प्रकार कुल १७० लेच्छखण्ड, तथा ६ भोगभूमियां हैं।' (हैमवत, हैरण्यवत, हरि, रम्यक, देवकुरु (विदेह क्षेत्र), उत्तरकुरु (विदेह क्षेत्र)-इन ६ क्षेत्रों में १-१ भोगभूमि है।')
विदेह क्षेत्र में कभी धर्मोच्छेद नहीं होता, और वहां सदा तीर्थकर विद्यमान रहते हैं। वहां हमेशा ही चतुर्थकाल रहता है, अर्थात् वहाँ मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक कोटि 'पूर्व' तक, तथा शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष प्रमाण होती है।
भरत व ऐरावत में (५-५ म्लेच्छ खण्डों में कुछ अपवादों को छोड़कर) उत्सपिणी व अवसर्पिणी का षटकालचक्र निरन्तर प्रवर्तित होता रहता है। अवसर्पिणी में मनुष्यादि की आयु, शरीर की ऊंचाई, विभूति, सुख आदि में ह्रास गतिशील रहता है, किन्तु उत्सर्पिणी में इनमें क्रमिक उन्नति प्रवर्तित रहती है ।
भरत क्षेत्र का विस्तार ५२६..योजन है।' भरत क्षेत्र के भी वैताढ्य (विजयार्द्ध) पर्वत के कारण दो भाग हो जाते हैं—(१) उत्तरार्ध भरत, तथा (२) दक्षिणार्ध भरत ।' इन दो में से प्रत्येक के भी, गंगा व सिन्धु नदी के कारण ३-३ खण्ड
१.
(क) ति०प० ४/२३६७, स्थानाँग-३/३/२६०, त० सू० ३/३७ (दिग० सं०) तथा इसकी टीकाएं, (ख) विदेहों के ३२ भेद इस प्रकार हैं-उत्तर कुरु व पूर्व विदेह को सीता नदी, तथा देवकुरु व अपर विदेह को सीतोदा नदी
दो-दो भागों में विभाजित करती हैं, जिससे विदेह के ८ भाग हो जाते हैं। ३ अन्तनदियों तथा चार वक्षस्कार पर्वतों से विभाजित होकर इन में से प्रत्येक के ८-८ भाग हो जाते हैं (द्र० लोक प्रकाश-१७/१८-२०, हरिवंश पु० ५/२३८-२५२,
बृहत्क्षेत्र समास-३२०, ३६१-३६३)। (ग) ५ भरत, ५ ऐरावत, ५ विदेह-इस प्रकार (प्रत्येक में तीन) पन्द्रह कर्मभूमियों का भी निर्देश है (जीवाजीवा० सू० २/४५,
(घ) समस्त मनुष्य-क्षेत्र (अढ़ाई द्वीप में) ५ भरत, ५ ऐरावत, तथा १६० विदेह-इनमें से प्रत्येक में १-१ कर्मभूमि होने से कुल
कर्मभूमियाँ १७० हो जाती हैं। २. ति०५० २३६७, त० सू० ३/३७ (दिग० सं०) तथा इस पर टीकाएं।
समस्त भोगभूमियां ३० (जंबूद्वीप में ६, धातकी खण्ड में १२, पुष्करार्ध में १२), तथा कुभोगभूमियां-६६ (लवणसमुद्र के अन्तर्वीपों में) मानी गई हैं (द्र० ति० प०४/२६५४)।।
अन्तीपों की संख्या दिगम्बर-परम्परा में ४८ (द्रष्टव्य-तिलोय प०४/२७४८-८०, त्रिलोकसार-६१३, हरिवंश पु० ५/४८१, राजवार्तिक-३/३७ आदि), तथा श्वेताम्बर-परम्परा मैं ५६ मानी गई है (द्र० स्थानांग-४/२/३२१-२७, जीवाजीवा० सू० ३/१०८११३, लो०प्रकाश-१६/३११-१६, भगवती सूत्र ६/३/२-३) । ति०प०४/२३६७, त० सू० ३/३७ (दिगं० सं०) तथा इस पर टीकाएं, स्थानांग-६/३/८३ राजवातिक-३/१०, त्रिलोकसार-६८०, लोकप्रकाश-१७/३६, ३६, ५५, त० स० ३/१० तथा ३/३१ (दिग० सं०) पर थू तसागरीय टीका व राजवार्तिक, त्रिलोक-सार-८८२, लोकप्रकाश-१७/३८,
४२१. बृहत्क्षेत्र समास-३६४. ६. ति० ५०/३१३-१४, ४/१५५७, जंबूद्दीव प० (श्वेता०)२/१८, त्रिलोकसार-७७६, स्थानांग-६/२३-२७, त० सू० ३/२७, (दिग०
संस्क०) तथा इस पर टीकाएं, हरिवंश पु०७/५७,६३, बृहत्क्षेत्र सभास-१६५, ति० ५०४/१००, लोकप्रकाश-१६/३०, हरिवंश पु० ५/१७-१८, जंबुद्दीव प० (श्वेता०) १/१०, त्रिलोकसार-७६७, वैताढ्य (विजयाध) पर्वत की ऊंचाई २५ योजन, तथा इसकी जीबा (उत्तर-प्रत्यंचा) का प्रमाण १०७२० योजन
लोकप्रकाश-१६/४८-५२. जंबू दीव प० (दिग०) २/३५, त० सू. ३/१० पर श्रुतसा० टीका, हरिवंश पु०५/२०-२१, बृहत्क्षेत्र स० ४४, १७८, ५६२, जंबूद्दीव प० (श्वेता०) १/१५, लोकप्रकाश-१६/३५, ४७, बृहत्क्षेत्र समास-२५,
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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