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आ० विद्यानन्दि ने कहा है-"स्वाद्वादी जनों के यहां ज्योतिषविज्ञानोक्त सभी बातें संगत ठहराई जा सकती हैं।"
वैज्ञानिक परम्परा में भी महान् वैज्ञानिक आइंस्टीन ने सापेक्षवाद का सहारा लेते हुए कहा था-"प्रकृति ऐसी है कि किसी भी ग्रह-पिण्ड की वास्तविक गति किसी भी प्रयोग द्वारा निश्चित रूप से नहीं बताई जा सकती।"
डेन्टन की 'रिलेटिविटी' पुस्तक में उक्त समन्वय को अधिक अच्छे ढंग से निम्न प्रकार से प्रतिपादित किया गया है
'सूर्य-मण्डल के भिन्न-भिन्न ग्रहों में जो आपेक्षिक गति है, उसका समाधान पुराने 'अचल पृथ्वी के आधार पर भी किया जा सकता है, और कोपरनिकस' (वैज्ञानिक) के उस नए सिद्धान्त के आधार पर भी किया जा सकता है जिसमें पृथ्वी को चलती हुई माना जाता है।"
(इ) पृथ्वी पर मध्यलोक का संक्षिप्त विवरण इस पृथ्वी के मध्य भाग में 'जम्बूद्वीप' स्थित है, जिसका विस्तार एक लाख योजन (लम्बाई-चौड़ाई) है।' इसे सभी ओर से (वलयाकार) घेरे हुए दो लाख योजन विस्तार (लम्बाई) वाला तथा १० हजार योजन चौड़ाई वाला लवणसमुद्र है। इसी प्रकार एक दूसरे को घेरते हुए, क्रमश: धात कीखण्ड द्वीप, कालोद समुद्र, पुष्कर द्वीप, पुष्करोद समुद्र, वरुणवर द्वीप, वरुणवर समुद्र, क्षीरवर द्वीप, क्षीरोद समुद्र, घृतवर द्वीप, घृतवर समुद्र, क्षोदवर द्वीप, क्षोदवर समुद्र, नन्दीश्वर द्वीप, नन्दीश्वर वर समुद्र आदि असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं। सब के अन्त में असंख्यात योजन विस्तृत स्वयम्भरमण द्वीप है।
पुष्कर द्वीप को मध्य में से दो भाग करता हुआ मानुषोत्तर पर्वत है, जिसके आगे मनुष्यों का सामान्यत: जाना-आना सम्भव नहीं। इसलिए मानुषोत्तर पर्वत के पूर्व तक, अढ़ाई द्वीप में मनुष्य क्षेत्र (मनुष्य-क्षेत्र) की मर्यादा मानी गई है। मानुषोत्तर पर्वत १७२१ योजन ऊंचा, तथा मूल में १०२२ योजन चौड़ा है।'
१. ज्योतिःशास्त्रमतो युक्तं नैतत्स्याद्वादविद्विषाम् । संवादकमनेकान्ते सति तस्य प्रतिष्ठिते (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-४।१३ त० सू०
पर, श्लोक सं० १७, खंड-५, पृ० ५८४) ॥ २. Rest and motion are merely relative.
Nature is such that it is impossible to determine absolute motion by any experiment whatever. (Myste
rious Universe, p. 78). . The relative motion of the members of the solar system may be explained on the older geocentric mode
and on the other introduced by Copernicus. Both are legitimate and give a correct description of the motion but the Copernicus is for the simpler. (Relativity and Commonsence, by Denton) ति० प. ४११, लोकप्रकाश-१६।२२, हरिवंश पु० ॥३, त० सू० ६८ पर श्रुतसागरीयवृत्ति, स्थानांग-११२४८, जम्बूद्दीव पण्णत्ति (श्वेता०) ७।१७६, समवायांग-११४ जीवाजीवाभिगम-३।१२४, ति०प० ४।२३९८, ४।२४०१, जीवाजीवा० ३।२।१७२, त्रिलोकसार-३०४-३०८, त० स० ३१८ पर श्रुतसागरीयवृत्ति, लोकप्रकाश-१५।२३-२७, जीवाजीवा० ३।२।१८५, हरिवंश-पु० ५।६२६, हरिवंश पु० ५।५७७, ति० प० ४।२७४८, बृहत्क्षेत्रसमास-५८२, ५८७, ति०प० ४।२६२३, सर्वार्थसिद्धि-३१३५, त० सू० ३.१४ (श्वेता० सं०), हरिवंश पु० २६११-१२, श्वेताम्बर मत में वैक्रियलब्धि-सम्पन्न तथा चारण मुनि मानुषोत्तर पर्वत के पार भी जा सकते हैं (माणुसुत्तरपब्वयं मणुया ण कयाइ वीइवइंसु वा वीइयवंति वा वी इवइस्संति वा णण्णत्थ चारणे हि वा देवकम्मुणा वा वि-जीवाजीवाभि० सू० ३।२।१७८,) किन्तु हरिवंश पु०
(दिग०)-५२६१२ में समुद्घात व उपपाद में ही इस पर्वत के आगे गमन बताया है। ६. हरिवंश पु०५।५६१-६३, जीवाजीवा० ३।२।१७८, स्थानांग-१०।४०, बृहत्क्षे त्रसमास-५८३-८४,
७.
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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