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दिगम्बर-परम्परा में इसकी उपमा खड़े हुए मृदंग के ऊर्ध्वभाग (सपाट गोल) से भी दी गई है।
जम्बूद्वीप का आकार भी रकाबी (खाने की प्लेट) के समान सपाट गोल है, जिसकी उपमा रथ के चक्र, कमल की कणिका, तले हुए पूए आदि से की गई है। जम्बूद्दीवपण्णत्ति (दिगम्बर परम्परा) में इसे सूर्य-मण्डल की तरह वृत्त, तथा सदृश-वृत्त' बताया गया है।
उपर्युक्त निरूपण के परिप्रेक्ष्य में, जैन-परम्परा के अनुसार, पृथ्वी नारंगी की तरह गोल न होकर चिपटी (चौड़ी-पतली, : सपाट-दर्पण के समान) सिद्ध होती है ।
प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों (श्रीपति, श्रीलल्ल, सिद्धान्तशिरोमणिकार भास्कराचार्य आदि) ने भी पृथ्वी को समतल ही माना है। वायु पुराण, पद्मपुराण, विष्णुधर्मोत्तरपुराण, भागवत आदि पुराणों में भी पृथ्वी को समतलाकार या पुष्करपत्रसमाकार बताया गया है। (७) जैनदर्शन और विज्ञानः
आधुनिक विज्ञान इस पृथ्वी को नारंगी की तरह गोल मानता है। जैन -सम्मत पृथ्वी-आकार तथा विज्ञान-स्वीकृत पृथ्वी आकार के मध्य इस अन्तर को समाप्त करने के लिए जैन विद्वानों द्वारा विविध प्रयत्न किये जा रहे हैं। यह प्रयत्न द्विमुखी है । एक पक्ष के प्रवर्तकों का यह प्रयत्न रहा है कि जैनागमों की ही ऐसी व्याख्या की जाए जिससे जैन मत या तो आधनिक विज्ञान के कुछ निकट आ जाए, या समर्थित हो जाए। दूसरे पक्ष के समर्थकों का यह प्रयत्न रहा है कि विज्ञान के मतों को अनेक युक्तियों से सदोष या निर्जल सिद्ध करते हुए जैन-सम्मत सिद्धान्तों की निर्दोषता या प्रबलता प्रकट हो । इन दोनों पक्षों को दृष्टि में रख कर, विज्ञान व जैन मत के बीच विरोध का समाधान यहां प्रस्तुत किया जा रहा है । (क) झल्लरी व स्याली शब्दों के अर्थ:
(१) प्रथम पक्ष की ओर से यह समाधान प्रस्तुत किया जाता है कि जैन शास्त्रों में पृथ्वी की उपमा 'झल्लरी' या 'स्थाली' सही जाती है। आज 'स्थाली' शब्द से भोजन करने की थाली, तथा 'झल्लरी' शब्द से झालर का बोध मानकर जैन परम्परा में पथ्वी को वत्त व चिपटी माना गया है। किन्तु झल्लरी' का एक अर्थ 'झांझ' वाद्य भी होता है, और 'स्थाली' का अर्थ खाने पकाने की इंडिया (बर्तन) भी । ये अर्थ आज व्यवहार में नहीं हैं । यदि झांझ व हंडिया अर्थ माना जाए तो पृथ्वी का गोल होना सिद्ध हो जाता है और आधुनिक विज्ञान की धारणा से भी संगति बैठ जाती है ।
यहां यह उल्लेखनीय है कि 'झल्लरी' पद का 'झांझ' (वाद्य) अर्थ में प्रयोग जैन आगम 'स्थानांग' में उपलब्ध भी होता है। विद्वानों के समक्ष यह समाधान विचारणार्थ प्रस्तुत है।
मज्झिमलोयायारो उब्भिय-मुरअद्धसारिच्छो (तिलोयपण्णत्ति, १/१३७) । श्वेता० परम्परा में ऊर्ध्वलोक को ऊर्ध्व मृदंगाकार माना है (भगवती स० ११/१०/8)। [ति० ५० की ऊर्ध्व मृदंगाकार मान्यता में गाणितिक दृष्टि से कुछ दोष था (ऊर्वलोक का घनफल १४७ धन रज्ज होना चाहिए, जो इस मान्यता में कठिन था), इसलिए आ० वीरसेन-प्रतिपादित आयत चतुरस्राकारलोक
की मान्यता दिग० परम्परा में अधिक मान्य हुई।] २. जंबूद्दीवे 'वट्ट तेल्लापूयसंठाणसंठिए वट्ट पुरहचक्कवालसंठाणसंठिए वट्ट क्खरकण्णियासंठाणसं ठिए (जंबूद्दीवपण्णत्ति-श्वेताम्बर,
१/२-३) । जीवाजीवाभिगम सू० ३/२/८४, ३/१२४, स्थानांग-१-२४८ औपपातिक सू० ४१, ३. जंबूद्दीवपण्णत्ति (दिग०) १/२०, ४. जंबूद्दीव प० (दिग०) ४/११
द्रष्टव्य-विज्ञानवाद विमर्श-(प्रका० भू-भ्रमण शोध संस्थान, महेसाणा-गुज०), पृ० ७५-८१
युवाचार्य महाप्रज्ञ मुनि नथमल जी का मत, (द्र० तुलसीप्रज्ञा (शोध पत्रिका), लाडनू, अप्रैल-जून, १९७५, पृ० १०६) । ७. मज्झिमं पुण झल्लरी (=झांझ से मध्यम स्वर की उत्पत्ति होती है)-स्थानांग-७/४२
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिदन्दन ग्रन्थ
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