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समयसार में कहते हैं
सुद्धो सुद्धादेसो गायब्वो परमभावदरसोहि ।
ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे ॥ अर्थात् जो साधक शुद्धोपयोग में समर्थ हो गये हैं उनके लिए शुद्धोपयोगरूप निश्चयधर्म ही उपयोगी है, किन्तु जो उसमें समर्थ नहीं हुए हैं, उनके लिए विषयकषायरूप दुर्ध्यान का निरोध करने हेतु शुभोपयोगरूप व्यवहारधर्म भी उपयोगी है।
(समयसार। तात्पर्यवृत्ति १२) समयसार की उपर्युक्त गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द ने अपेक्षाभेद से निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म दोनों की उपादेयता निरूपण किया है। शुभप्रवृत्ति के विषय में उन्होंने प्रवचनसार में कहा है
जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं ।
अणुकंपयोवयारं कुब्वदु लेवो जदि वि अप्पो॥ --जैन मुनियों और श्रावकों की निष्कामभाव से सेवा करने पर यद्यपि किंचित् पुण्यबन्ध होता है, तथापि करनी चाहिए। इस गाथा में भगवान् कुन्दकुन्द ने शुभप्रवृत्ति की कथंचित् हेयरूपता तथा कथंचित् उपादेयरूपता दोनों का वर्णन किया है।
निम्नलिखित वक्तव्य में आचार्य जयसेन से शुभोपयोग को पुण्यबन्ध का हेतु बतलाते समय उसके परम्परया मोक्षहेतु होने का भी निरूपण किया है"यदा सम्यक्त्वपूर्वकः शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धो भवति परम्परया निर्वाणं च, नो चेत् पुण्यबन्धमात्रमेव ।"
(प्रवचनसार । तात्पर्यवृत्ति ।।५५) अर्थात् जब सम्यग्दर्शनपूर्वक शुभोपयोग होता है तब मुख्यरूप से पुण्यबन्ध होता है और परम्परया निर्वाण । सम्यग्दर्शनपूर्वक न होने पर मात्र पुण्यबन्ध ही होता है।
इस प्रकार आचार्यों ने शिष्यों को एकान्तवाद से बचाने के लिए अपने प्रवचन को सदा अनेकान्तात्मक या स्याद्वादमय बनाया है।
एकान्त प्रवचन से श्रोता एकान्तवादी बनकर मोक्ष की साधना में सफल नहीं हो पाता। कोई केवल निश्चय मोक्षमार्ग का उपदेश सुनकर उसी का अवलम्बन करता है, कोई केवल व्यवहार मोक्षमार्ग का उपदेश पाकर मात्र उसका आश्रय लेता है, जबकि यथावसर दोनों के अवलम्बन की आवश्यकता है, क्योंकि उनमें साध्यसाधक भाव है। व्यवहारमोक्षमार्ग के अवलम्बन के बिना निश्चय मोक्षमार्ग के अवलम्बन की योग्यता नहीं आती और निश्चयमोक्षमार्ग के आश्रय के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता। इसलिए एकान्तरूप से किसी एक का उपदेश देने से साधक का साधना में विफल होना अनिवार्य है। अतः साधक को तत्त्व का यथार्थ बोध कराने एवं मोक्ष की साधना में सफल बनाने के लिए अनेकान्तात्मक प्रवचन आवश्यक है।
जैन दर्शन की एक विशिष्टता है उसका केवलज्ञान का सिद्धान्त । इसे प्रत्यक्ष ज्ञान या तत्क्षण ज्ञान भी कहते हैं। केवलज्ञान की परिभाषा दी गयी है कि यह परिपूर्ण, समग्र, असाधारण, निरपेक्ष, विशुद्ध, सर्व-भाव-ज्ञापक, लोकालोकविषय तथा अनन्तपर्याय होता है। इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि मनुष्य की ज्ञान-प्राप्ति की प्रगति में सर्वज्ञता का एक ऐसा स्तर आता है जब उसे बिना किसी बाधा के यथार्थता का पूर्ण अन्तर्ज्ञान हो जाता है। चूंकि जैन दर्शन की आधारभूत मान्यता यह है कि इन्द्रिय तथा मन 'ज्ञान के स्रोत' न होकर सिर्फ 'बाधा के स्रोत' हैं, इसलिए स्पष्ट है कि सर्वज्ञ का स्तर दिक् तथा काल की सीमा के परे का है। अतः सर्वज्ञता एक ऐसी पूर्ण अनुभूति है जिसके अन्तर्गत दिक्काल की सीमित विशेषताओं वाले अनुभवों का समावेश नहीं होता। केवलज्ञान की श्रेष्ठता का आधार यह है कि, मति तथा श्रु त के विषय सभी पदार्थ हैं, परन्तु इनमें उनके सभी रूपों का निरूपण नहीं होता (असर्व-द्रव्येषु असर्व-पर्यायेषु); अवधि के विषय केवल भौतिक पदार्थ हैं, परन्तु इसमें उनके सभी पर्यायों का विचार नहीं होता (रूपिष्वेव द्रव्येषु पर्यायेष); अवधि द्वारा प्राप्त भौतिक पदार्थों का अधिक शुद्ध एवं अत्यन्त सूक्ष्म ज्ञान मनःपर्याय है; और केवलज्ञान का विषय सभी पदार्थ हैं और इसमें उनके सभी पदार्थों का विचार होता है (सर्व-द्रव्येषु सर्वपर्यायेषुच)। -प्रो० एस० गोपालन (जैन दर्शन की रूपरेखा के द्वितीय भाग 'ज्ञानमीमांसा'
में वणित 'केवलज्ञान', पृ०६४ से साभार)
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आचार्यरत्न श्री वेशभूषणजी महाराज अभिनन्दन अन्य
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