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चाहिए और सम्पत्ति के अधिकार को मानना चाहिए । इन नैतिक गुणों के कारण हर व्यक्ति समाज का विश्वासभाजन बनता है और सबके लिए सुरक्षा का वातावरण प्रस्तुत करता है। मनुष्य के विचारों में कथनी और करनी का सामंजस्य होना आवश्यक है ताकि इसके द्वारा भी वैयक्तिक तथा सामाजिक सुरक्षा का वातावरण बने । इन गुणों से युक्त नागरिक शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व एवं 'बहुजन हिताय एवं बहुजन सुखाय' के सिद्धान्त का पालन करते हुए संगठित समाज और राष्ट्र की रचना कर सकता है। अहिंसा का सिद्धान्त विश्व नागरिक को इस मानवीय दृष्टिकोण की आवश्यक भूमिका प्रदान करता है। प्रत्येक व्यक्ति में एक दिव्य क्षमता होती है। उसका कार्य है कि वह धर्म-पथ का अनुसरण करता हुआ उस दिव्यता को जाने, पहचाने और अनुभव करे। हमें मानव मात्र का आदर करना चाहिए और सबका यही प्रयत्न हो कि मानव स्वस्थ तथा प्रगतिशील स्थितियों में रहकर विश्व-नागरिक बने । निस्सन्देह जैन धर्म के मौलिक सिद्धान्तों-भहिंसा, अपरिग्रह एवं अनेकान्त जैसे नैतिक मापदण्डों को ठीक से समझकर विश्व कुटुम्ब' की भावना पैदा की जा सकती है।
मनुष्य चारित्रिक उदात्तता से विश्व-कल्याण कर सकता है। जैसे बिन्दु का समुदाय समुद्र है, इसी तरह हम मैत्री करके मैत्री का सागर बन सकते हैं और जगत में मैत्री भाव से रहें तो जगत का रूप ही बदल जाये। सामयिक पाठ में यही सार दिया गया है :
सस्वेसु मैत्री गुणिष प्रमोवं क्सिष्टेसु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ
सदा ममात्मा विदधातु देव ।। लौकिक उन्नति का क्षेत्र हो या आध्यात्मिक साधना का, सर्वत्र उज्ज्वल सत्त्वशाली महानुभाव के सम्पर्क भौर निर्देश को पाकर ही आज उत्साह, साहस, कत्र्तव्यनिष्ठा, सत्यपरायणता, करुणाशीलता, आत्म-त्याग जैसे मानवीय गुणों का विकास सम्भव हो सकता है। इन नैतिक मानदण्डों को अपनाकर अपना जीवन-मार्ग हम चुन लें और बावजूद तमाम बाधाओं के उस पर चलते रहें
'स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः ।'
मानवीय स्वतन्त्रता आर्थिक समृद्धि, कामोपभोग, यश, सत्ता और अधिकार या अगाध पांडित्य सब अपने आपमें मनुष्य को शाश्वत सुख या मानसिक शान्ति देने के लिए अपर्याप्त हैं। मानवी असन्तोष फिर भी बना रहता है। मार्क्स, फायड और एडलर यह नहीं बतला सकते कि मनुष्य का उद्वेग किस प्रकार पूर्णतया मिट सकता है। मनुष्य जब अपनी परिस्थितियों में अपनी सुप्त सम्भाव्य शक्तियों के पूर्ण विकास के लिए पर्याप्त क्षेत्र पाता है, और स्वयं अपने तथा विश्व के बारे में अपने ज्ञान के आधार पर अपने विश्व के और अन्य मानव प्राणियों के साथ एकलयता का अनुभव करता है, तब उसे अपनी कृति से आनन्द मिलता है। दूसरी ओर संगति में जरा भी गड़बड़ होने से, मनुष्य दुःखी चिन्ताकुल, असन्तुष्ट या उत्तेजित हो जाता है, या फिर उसमें वैराग्य के मनोभाव जागते हैं। दूसरे शब्दों में स्वातन्त्र्य के साम्राज्य में वह सुखी रहता है और बन्धनों में वह दुःखी हो जाता है । अत: मानबीस्वतन्त्रता ही सर्वोच्च नैतिक मानदंड है। ---श्री लक्ष्मण शास्त्री जोशी के निबन्ध 'भारतीय समाज-व्यवस्था के नैतिक आधार',
नेहरू अभिनन्दन प्रन्थ, पृ० सं० ३१० से साभार
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भाचार्यरन भी देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन बल्ब
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