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अनेकान्तात्मक प्रवचन की आवश्यकता
आज तत्त्व के विषय में जिज्ञासुओं की एकान्त धारणाएँ बन रही हैं। कोई निश्चयनय के ही कथन को सत्य मानता है, कोई व्यवहारनय के ही । इसका प्रमुख कारण है एकान्त प्रवचन । तत्त्व अनेकान्त है अर्थात् परस्पर विरुद्ध धर्मयुगलों से समन्वित है । अनेकान्त तत्व का बोध कराने के लिए उसके दोनों पक्षों का कथन आवश्यक है। किन्तु अनेक प्रवचनकर्ता एक पक्ष का ही कथन करते हैं अथवा एक पर ही अनावश्यक बल देते हैं, दूसरे की उपेक्षा करते हैं। इससे जिज्ञासुओं या श्रोताओं की दृष्टि में वस्तु का एक ही पक्ष आ पाता है। फलस्वरूप उसके विषय में उनकी एकान्त धारणा बन जाती है । उदाहरणार्थ, सम्यक्त्वसहित शुभपरिणाम केवल पुण्यबन्ध का कारण नहीं है, परम्परया मोक्ष का भी हेतु है। किन्तु कुछ प्रवचनकार उसकी बन्धहेतुता का ही वर्णन करते हैं, परोक्ष मोक्षहेतुता की चर्चा नहीं करते और कुछ उसकी परोक्ष मोाहेतुता पर ही बल देते हैं, बन्धहेतुता के विषय में मौन हो जाते हैं। इसी प्रकार कोई व्यवहारमोक्षमार्ग की हेयता का ही कथन करता है और कोई उसकी उपादेयता पर ही प्रकाश डालता है। इससे श्रोताओं के मन में उक्त प्रकार की ही एकान्त धारणाएँ बन जाती है।
डॉ० रतनचन्द्र जैन
आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने एकान्तप्रवचन की हानियाँ बतलाते हुए कहा है कि "तीर्थप्रवृत्ति के निमित्त परमार्थ सत्य के साथ-साथ व्यवहार सत्य का दर्शाया जाना भी आवश्यक है, क्योंकि शरीर और जीव में परमार्थतः जो भेद है केवल उसी को दर्शाने से लोग उनमें सर्वथा भेद समझ लेंगे और प्राणियों के शरीर का घात करने में हिंसा नहीं मानेंगे। तब वे निःसंकोच प्राणियों का वध करेंगे। इससे पापबन्ध होगा और मोक्ष असंभव हो जायेगा। इसी प्रकार आत्मा और रागादिभावों में परमार्थतः जो भिन्नता है, उसीका वर्णन करने से श्रोतागण उनमें सर्वथा भिन्नता मान लेंगे और अपने को पूर्ण शुद्ध समझकर मोक्ष का प्रयत्न ही न करेंगे ।" (समयसार । आत्मख्याति ४६ ) इस प्रकार एकान्तप्रवचन अत्यन्त हानिकारक है।
विद्वानों के एकान्त प्रवचनों से न केवल श्रोता भ्रमित हो रहे हैं, विद्वज्जगत् में भी भयंकर द्वन्द्व उत्पन्न हो गया है। इसका निर्देश करते हुए यल्लक जिनेन्द्र वर्णी की लिखते हैं
"आज बड़े-बड़े विद्वान् भी परस्पर आक्षेप कर एक-दूसरे का विरोध करने में ही अपना समय व जीवन बर्बाद कर रहे हैं। एक केवल उपादान - उपादान की रट लगा रहा है, दूसरा केवल नैमित्तिक भावों या निमित्तों की एक ज्ञानमात्र की महिमा का बखान करके केवल जानने-जानने की बात पर जोर लगा रहा है और दूसरा केवल व्रतादि बाह्य चारित्र धारण करने की बात पर कितना अच्छा होता, यदि दोनों विरोधी बातों को अपने वक्तव्य में यथास्थान अवसर दिया जाता" (नयदर्पण, पृष्ठ ३३-३४) ।
अनेकान्त तत्त्व का प्रवचन मुख्य-गौणभाव से होता है। एक बार में तत्त्व के एक ही पक्ष का कथन संभव है। अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि वस्तु के जिस धर्म को कथन में प्रमुखता दी जा रही है, उसके विषय में यह बतला दिया जाय कि यह धर्म इस विशेष अपेक्षा से ही वस्तु में है, सर्वथा नहीं। साथ ही यह सूचना भी दे दी जाय कि अमुक अपेक्षा से प्रतिपक्षी धर्म भी उसमें है। इससे एकान्त दृष्टिकोण निर्माण न होगा । प्रतिपक्षी धर्म की सूचना उसी समय देना आवश्यक है, अन्यथा श्रोता के मस्तिष्क में वस्तु का अनेकान्त चित्र निर्मित न होगा तथा यह संभव है कि उसे आगे प्रवचन सुनने का अवसर न मिले जिससे वह प्रतिपक्षी धर्म को जानने से अनिश्चित काल के लिए वंचित हो जाय। इससे उसके मस्तिष्क में वस्तु का अनेकान्त चित्र कभी न बन पायेगा और उसके विषय में उसकी सदा के लिए एकान्त धारणा बन जायेगी । अतः प्रवचनकर्त्ता के लिए अपना कथन अनेकान्त या स्याद्वादमय बनाना अत्यन्त आवश्यक है। श्री क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी ने इसे अत्यन्त आवश्यक बतलाते हुए यह कैसे किया जा सकता है, इसका सुन्दर निरूपण अपने ग्रन्थ नयदर्पण में किया है।
प्राचीन आचार्यों ने इस तथ्य को पूर्णरूपेण ध्यान में रखा है। श्रोता एकान्त को ग्रहण न कर ले इस विचार से वे एक पक्ष का निरूपण करते समय प्रतिपक्ष का स्पष्टीकरण भी साथ में करते गये हैं । यह निम्नलिखित उदाहरणों से जाना जा सकता है । आ० कुन्दकुन्ददेव
जैन धर्म एवं आचार
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