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इस वाक्य का असर महाराज संयति पर जादू के समान हुआ और उन्होंने उसी दिन से मृगया पर जाना छोड़ दिया। भय सुख का चोर है क्योंकि भय का वातावरण अशान्ति की स्थिति को उत्पन्न करता है जिसमें सुख की कोई आशा ही नहीं की जा सकती है। इसलिए सुख के लिए अभय की जननी अहिंसा का स्थापन नितान्त आवश्यक है।
क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम ऐसा है कि बिना अहिंसा का भाव रखे हम स्वयं भी वस्तुतः सुखी रहने की कल्पना नहीं कर सकते हैं। कोई बलशाली निर्बल को सताता है। परन्तु बलशीलता और निर्बलता निरपेक्ष भाव नहीं हैं । किसी बलशाली को अपने से अधिक बलवान के फेर में पड़ने पर निर्बल की तरह दुर्गति का भागी बनना पड़ता है। दूसरी बात यह भी है कि निर्बल सदा निर्बल ही नहीं रहता-‘मरे बैल के चाम से लोह भस्म ह जाय' । एक समय ऐसा भी आता है जब निर्बल की 'आह' संघटित होकर प्रचण्ड आघात करती है । संसार की विभिन्न हिसक क्रान्तियाँ इसका साकार उदाहरण हैं। परन्तु यह भी ध्यान में रखना है कि इस प्रकार की क्रान्तियां समस्याओं का अन्तिम समाधान नहीं कर पाई हैं । वैमनस्य, द्वेष, क्रोध, अपमान, लोभ आदि की जड़ उन्मूलित न तो हो पाईं और न उक्त मार्ग से हो ही सकती हैं । वे कन्द रूप में अन्तहित रहती हैं और उपयुक्त अवसर पाकर प्रारम्भिक रूप को ग्रहण कर लेती हैं । यहीं पर प्राचीन भारतीय विचार की नवीन साम्यवादी विचार से भिन्नता है। नवीन साम्यवादी विचार मुख्यतः आर्थिक समता के सिद्धान्त पर आधारित है, और वहां आर्थिक समता की स्थिति को लाने के लिए हिंसा की नीति का अवलम्बन त्याज्य नहीं समझा जाता है। भारतीय विचार के अनुसार अत्यन्त मौलिक एवं व्यापक अर्थ में सभी प्राणियों में साम्य है। अज्ञान अथवा मोह में पड़कर लोग इस सत्य को भूले रहते हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की हैं कि पवित्र साधनों के द्वारा अपवित्र मोह के अन्धकार को हटाया जाय और इस सत्य का साक्षात्कार किया जाय कि सभी प्राणी समान हैं । गीता कहती है :
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पंडिताः समदशिनः ।। (गीता-५/१८)
इस सत्य के अनुभव के लिए जिन पवित्र साधनों की चर्चा हमने की है उनका उत्स अहिंसा की भूमि में ही है। अहिंसा मानव-संस्कृति की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है--
हजारों वर्षों की सभ्यता के अनुभवों के बाद मानव ने जीवन के जिन सौम्य तत्त्वों का अन्वेषण किया, वे उसके धार्मिक विश्वासों में संरक्षित रक्खे गये हैं। भारतीय धार्मिक विश्वास का अर्थ अन्धविश्वास कभी नहीं समझना चाहिए क्योंकि जिन आदर्शों पर यहाँ धार्मिक आस्था की मुहर लगी है वे वस्तुतः शताब्दियों के मनन-चिन्तन के परिणाम हैं । सभ्यता के रूप में उतार-चढ़ाव आते रहे हैं क्योंकि ऐतिहासिक घटनाओं की गति उन्नति एवं अवनति, दोनों ही दिशाओं में रही हैं । विश्वइतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि किसी काल-विशेष में घटनाओं का क्रम सम्पूर्ण विश्व में एक ही प्रकार का रहा है। इसी क्रम के मूल्यांकन से उस काल में सभ्यता की स्थिति का पता चलता है। टायनबी आदि इतिहास-दर्शन के प्रसिद्ध विद्वान मानते हैं कि मानवसभ्यता के प्रारम्भ से लेकर आज तक के समय के बीच केवल एक परमोत्कर्ष का विन्दु आया है जिसका काल भारत में उपनिषत्काल से लेकर महात्मा महावीर एवं बुद्ध के धर्म प्रचार की अवधि तक का है। इसके केन्द्र-बिन्दु को ई० पू० छठी शताब्दी में माना गया है जो मोटामोटी स्वामी महावीर का आविर्भावकाल है। इतिहासदर्शन के साहित्य में इस काल को धुरीणकाल (Axial Period) की संज्ञा दी गयी है। उस काल में मानवता ने जिन तत्त्वों की खोज की, उसी के चतुर्दिक आज भी उसके आदर्श के चक्र घूम रहे हैं। उसके आगे किसी अन्य नवीन तत्त्व की उपलब्धि नहीं हो सको है । यही कारण है कि उक्त समय को 'धुरीण' काल कहा गया है। ये तत्त्व मूलत: उपनिषदों में मुखरित हुए थे किन्तु कर्मकाण्ड ने परवर्तीलोक में उन्हें आवत कर दिया था। उन्हें फिर आगे लाकर पुनः सबल करने का श्रेय भगवान महावीर एवं महात्मा बुद्ध को है । हम पूर्वपृष्ठों में यह प्रदर्शित कर ही चुके हैं कि उन्होंने जीवन के जिन सौम्य तत्त्वों पर बल दिया उनमें अहिंसा सर्वप्रमुख है क्योंकि अन्य सभी आदर्शों की जननी यही है। मानवसभ्यता के भविष्य का प्रकाश यही है। अनेक ठोकरें खाने के बाद अन्त में मानव-समाज को समग्ररूप से उस भगवती अहिंसा के शरण में आना ही पड़ेगा जो प्राणिमात्र के लिए कल्याण की प्रसविनी है :
___ एसा भगवती अहिंसा तसथावरसब्वभूयखेमकरी। (प्रश्नव्याकरण)
आवें, हम भी अपनी ओर से नतमस्तक होकर इस देवी के चरणों में अपनी श्रद्धांजलि चढ़ाते हुए उससे सर्वोदय के वरदान की याचना करें:
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित्पापमाचरेत् ॥ (आ. हरिभद्रकृत धर्मबिन्दुप्रकरण, ७२)
जैन धर्म एवं आचार
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