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परिशुद्ध मत्स्य एवं मांस भक्षण तक की स्वीकृति दी ।
इस प्रकार यह सुस्पष्ट है कि 'ब्राह्मण, जैन एवं बौद्ध – इन तीनों परम्पराओं की पृथक्-पृथक् पृष्ठभूमियों ने उनके 'अहिंसा' सम्बन्धी दृष्टिकोणों को पूर्णतया प्रभावित किया है, जिससे प्रत्येक की अवधारणाओं का अपना वैशिष्ट्य है। प्रस्तुत में 'बौद्ध-धर्म' में 'अहिंसा' के विशिष्टस्वरूप का प्रतिपादन अभीष्ट होने से उसे ही प्रस्तुत किया जा रहा है।
बौद्ध धर्म में 'अहिंसा' स्थविरवादियों द्वारा मून बुद्ध वचन रूप में उद्घोषित पालि-त्रिपिटक तथा परवर्ती बोद्ध-साहित्य के अनुशीलन के आधार पर 'अहिंसा' की अवधारणा का विश्लेषण निम्न दो शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है :
:
(अ) 'अहिंसा' एक चित्त-धर्म (चेतस् ) के रूप में, तथा ( आ ) 'अहिंसा' एक 'शील' के रूप में ।
पालि-अभिधम्म ( तत्त्व-मीमांसा) में चित्त, चेतसिक, रूप तथा निब्बाण को परमत्थधम्म माना गया है। चेतसिक का उदय एवं निरोध चित्त के ही साथ होता है। इनका आलम्बन भी वही होता है जो चित्त का । किन्तु थेरवाद में परिगणित ५२ प्रकार के चेतसिकों में 'अहिंसा' नाम का कोई स्वतन्त्र धर्म परिगणित नहीं है तथा वह भी स्पष्ट रूप से उचित नहीं है कि इसे किस 'कुशल' चेतसिक में अन्तर्भूत किया जाए, फिर भी 'अहिंसा' को 'अदोसो' ( अद्वेष ) नामक कुशल चेतसिक के समुत्थान का ही प्रतिफल माना जा सकता है। सर्वास्तिवादियों का अभिधर्म-साहित्य अतिविस्तृत है जिसके अधिकतम भाग संस्कृत में विलुप्त, पर चीनी भाषा में अभी तक प्राप्य हैं। यहां 'अहिंसा' को एक स्वतन्त्र चेतसिक माना गया है जिसके उदय से कायिक-कर्म के रूप में 'अहिंसा' का आचरण संभव होता है । ' ' विज्ञप्तिमात्रता - सिद्धि प्रकरण' में 'स्थिरमति ने 'अहिंसा' के कायिक व्यवहार का समुत्थान 'करुणा' नामक चेतसिक के उदय से माना है । " उन्होंने 'करुणा' या 'अनुकम्पा' नामक चित्तधर्म पर 'अहिंसा' के पुण्यमय आचरण को आधारित बतलाया है। दूसरी ओर धर्मपाल नामक एक अन्य विज्ञानवादी आचार्य के अनुसार 'अद्वेष' ही वह चित्त-धर्म है जिसके कारण 'अहिंसा' का प्रयोग संभव होता है । द्वेषनामक चित्तधर्म का उदय चित्त में होने पर आलम्बनभूत पदार्थ जीव के विहिंसन का कृत्यापित होता है जबकि इसके प्रतिपक्षीभूत 'अद्वेष' वित्त-धर्म के अभ्युत्थान से उक्त पदार्थ का अविहिंसन ।
इस प्रकार 'अहिंसा' के इस प्राचीन मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से यह तथ्य उद्घाटित होता है कि 'अहिंसा' के प्रयोग का मनो वैज्ञानिक आधार प्राणि - मात्र के प्रति करुणा एवं मैत्री के वे उदात्तभाव हैं जिनसे उद्वेलित हो स्वयं शाक्यमुनि बुद्ध ने पहले तो व्यक्तिगत बैभवों को तिलकमति दी, महाभिनिष्क्रमण किया तथा सम्बोधि प्राप्ति के अनन्तर अस्सी वर्ष की आयु तक बहुजनहिताय नाना निगमों एवं जनपदों में चारिका का चरण किया। धम्मपद' में प्राणिघात से विरत रहने का उपदेश देते हुए यह कहा है कि "सभी मृत्यु से डरते हैं, सभी को अपने प्राण प्यारे हैं, अतः दूसरों की पीड़ा को स्वयं अपनी पीड़ा समझते हुए न उन्हें मारो, न इसके लिए दूसरों को प्रेरित करो। " 'करुणा' एवं 'मैत्री' के अतिरिक्त, हृी (लज्जा) एवं अपत्राप्य नामक चित्त-धर्म भी 'अहिंसा' की प्रायोगिक दशा की मानसिक पृष्ठभूमि है, क्योंकि प्राणिविहिनकृत्य में जो क्रूरता है उसकी परिणति 'ही' आदि में भी हो सकती है।
मीनों के व्याख्यान कम में भी 'अहिंसा' के प्रयोग के मानसिक हेतु के रूप में दाहिना एवं
'सामफलत' में
लज्जा को ही बतलाया गया है।*
तात्पर्य यह है कि 'अहिंसा' का जो व्यावहारिक प्रयोग है वह तभी संभव है जब इसके आन्तरिक हेतु के रूप में हमारे चित्त में अनुकम्पा, अद्वेष या लज्जा विद्यमान रहेगी साथ ही यह भी न भूलना चाहिए कि 'अहिंसा' बौद्ध-विचार में एक शोभन कृत्य है। यह किसी कृत्य का विषय न होकर स्वयं ही कृत्य रूप में स्वान्तः सुख का आधान कराने वाली है। इसके विपरीत, द्वेषचित्त वाला व्यक्ति वस्तुतः स्वयं अपना ही अपकार करता है। धम्मपद की यह उक्ति इसी तथ्य का संकेत कराती है :- -"न हि वेरेण वेराणि सम्मन्तीह कदाचन ।”
इन सभी तथा एतत्सदृश अन्य स्थलों के देखने से यह सुस्पष्ट हो जाता है कि 'अहिंसा' वस्तुतः बोद्ध शब्दावली में 'मेत्ताभावना' का ही दूसरा नाम है। इस प्रकार अहिंसा मात्र प्राणिघात से विरति के रूप में निषेधात्मक तथ्य ही न होकर, करुणा एवं मेत्ता के रूप में एक सर्वथा भावात्मक (Positive ) धर्म भी है।
किन्तु आध्यात्मिक प्रगति के क्रम में एक ऐसी स्थिति भी आती है जब कि 'अहिंसा' 'मेत्ता अध्यमञ्जा' नामक चित्त-स्थिति में विलीन हो जाती है । समस्त सत्त्व सुखी, शान्त एवं कुशली हों, इस प्रकार की इच्छा करते हुए अपरिमेय प्राणियों के प्रति अनुकम्पा जागृत
१. ताइसो संस्करण में चीनी तिपिटक भाग, ५-२० पृ० १६ व
२. विज्ञप्तिमानता सिद्धि पृ० २८,
३. धम्मपद, ५.१२६,
४. सामञ्नफन सुत,
५. धम्मपद १-७,
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आचार्य रत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दनम्
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