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जैन धर्म : करुणा की एक अजस्त्र धारा
श्री सुमत प्रसाद जैन
जैन धर्म में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध षोडशकारण रूप अत्यन्त विशुद्ध भावनाओं द्वारा उत्पन्न होता है। आत्मोन्नयन की चरम सीमा तक पहुंचाने में सहायक सोलह भावनाएं इस प्रकार है- (१) दर्शन विशुद्धता (२) विनय सम्पन्नता (३) में निरतिचारता (४) छह आवश्यकों में अपरिहीनता (५) क्षणलवप्रतिबोधनता (६) सिंवेगसम्पन्नता (७) यथाशक्ति तप (८) साधुओं को प्रासु परित्यागता ( ६ ) साधुओं को समाधिसंधारणा (१०) साधुओं की वैयावृत्ययोगयुक्तता ( ११ ) अरहन्तभक्ति (१२) बहुश्रुतभक्ति (१३) प्रवचन भक्ति (१४) प्रवचनवत्सलता (१५) प्रवचनप्रभावनता (१६) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगयुक्तता । परम चिंतक गुस्तव रोथ के अनुसार श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तीर्थंकर प्रकृति के अर्जन हेतु बीस भावनाओं का प्रावधान किया गया है।"
इस प्रकार के शुभ परिणाम केवल मनुष्य भव में, और वह भी केवल किसी तीर्थंकर या केवली के पादमूल में होने सम्भव हैं । महामहोपाध्याय श्री गोपीनाथ कविराज के अनुसार जनमत में भी केवलज्ञान सभी को प्राप्त हो सकता है, किन्तु तीर्थकर सब के लिए नहीं है। तीर्थंकर गुरु तथा दैनिक है इस पद पर व्यक्ति विशेष ही जा सकते हैं, सब नहीं तीर्थचरत्व त्रयोदश गुणस्थान में प्रकट होता है, परन्तु सिद्धावस्था की प्राप्ति चतुर्दशभूमि में होती है" संसार सागर को स्वयं एवं दूसरों को पार कराने की भावना वाले दिव्य पुरुष ही तीर्थंकर रूप में सम्पूजित होते हैं। श्री काकासाहब कालेलकर की दृष्टि में 'तीर्थंकर का अर्थ है, स्वयं तरकर असंख्य जीवों को भव-सागर से तारनेवाला । तीर्थ यानी मार्ग बताने वाला । जो सच्छास्त्ररूपी मार्ग तैयार करनेवाला है, वह तीर्थंकर है।" अतः तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि में भी करुणा का विशेष माहात्म्य है । प्रथमानुयोग के धर्मग्रन्थों में श्रेणिक राजा द्वारा ध्यान-सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर देते हुए महामुनि श्री गौतम गणधर द्वारा रौद्रध्यान के संबन्ध में जो सरस्वती प्रकट हुई है वह इस प्रकार है
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“जो पुरुष प्राणियों को रुलाता है वह रुद्र, क्रूर अथवा सब जीवों में निर्दय कहलाता है । रौद्र ध्यान के भेदों में हिंसानन्द के स्वरूप का विवेचन करते हुए योगीन्द्र शिरोमणि श्री गौतम गणधर जी कहते हैं, "मारने और बांधने आदि की इच्छा रखना, अंगउपांगों को छेदना, सन्ताप देना तथा कठोर दण्ड देना आदि को विद्वान् लोग हिंसानन्द नामक आर्तध्यान कहते हैं। जीवों पर दया न करने वाला हिंसक पुरुष हिंसानन्द नाम के रौद्र ध्यान को धारण कर पहले स्वयं का घात करता है और तत्पश्चात् भावनावश वह अन्य जीवों का घात कर भी सकता है अथवा नहीं भी । अर्थात् अन्य जीवों का मारा जाना उनके आयु कर्म के आधीन है परन्तु मारने का संकल्प करने वाला हिंसक पुरुष तीव्र कषाय उत्पन्न होने से अपनी आत्मा की हिंसा अवश्य कर लेता है । ""
अत: जैनधर्म में भावों को प्रधानता दी गई है। हिंसा के अपराध में शारीरिक रूप से लिप्त न होने पर भी भाव हिंसा के कारण मनुष्य का पतन हो जाता है। शारीरिक शक्ति एवं सामर्थ्य के अभाव में भी परदुःखकातरता का भाव आत्म-विकास में सहायक होता है।
करुणा के दार्शनिक पक्ष को यदि हम इस समय गौण करके सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक स्थिति का ऐतिहासिक विश्लेषण करें तो यह
1. Gustav Roth "The Terminology of the Karana sequence" (Pr. & Tr. A. I. O. Con. 18th Sess. 1955. Annamalainagar, 1958). pp. 250-259
२. आचार्य नरेन्द्र देव, 'बौद्ध-धर्म-दर्शन', भूमिका, पृ० १५-१६
३. काका साहब काल ेलकर, 'जीवन का काव्य', पृ० सं० २२
४. प्राणिनां रोदनाद् रुद्रः क्रूरः सत्वेषु निर्घुण: । प्रादिपुराण, एकविंश पर्व, पृ० सं० ४७८ पद्म सं० ४२
२.सम्पन्त कासोत् पूर्वभाव इष्यते ॥
वधबन्धाभिसंधान मङ्गच्छेदोपतापने । दण्डपारुष्यमित्यादि हिंसानन्दः स्मृतो बुधैः ॥
हिसानन्दं समाधाय हिंस्रः प्राणिषु निर्घुणः । हिनस्त्यात्मानमेव प्राक् पश्चाद् हन्यान्न वा परान् । (प्रादिपुराण, एकविंश पर्व, पृ० स० ४७६ पद्म सं० ४४.४६ )
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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भगवान् महावीर स्वामी और समकालीन भारत की निश्चित रूप से सिद्ध हो जायेगा कि ततत्कालीन समाज
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