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अतः दपा अहिंसा का ही भावात्मक पहलू है। योगभाष्य में अहिंसा को सभी महाव्रतों का आधार कहा गया है। उत्तराध्ययन वृत्ति (१-११) ने भी अहिंसा को धर्म का मूल कहा है क्योंकि उसी का भावात्मक पक्ष दया का रूप है (धर्म:......... पूर्णदयामयप्र वृत्तिरूपत्वादहिंसामूलः) । उसी अर्थ मे 'धर्मरत्न प्रकरण' ने भी दया को धर्म का मूल कहा है क्योंकि अन्य सभी अनुष्ठान उसी के अनुगामी हैं
मूलं धम्मस्स दया, तयणगयं सव्वमेवाऽनट्ठाणं ।
टी०-मूलमाद्यकारणं धर्मस्य उक्तनिरुत्कस्य दया प्राणिरक्षा । प्रसिद्ध जैनागम भगवतीसूत्र ने दया का जो वर्णन किया है उससे भी यह स्पष्ट होता है कि अहिंसा को दया का समानार्थक माना गया है। इसमें कहा गया है कि 'जीवमात्र को कष्ट नहीं देना, शोक में नहीं डालना, रोदन एवं अश्रु पात करने का हेतु नहीं होना, ताड़न नहीं करना, भय नहीं दिखाना, अनुकम्पा के रूप हैं (भगवती सूत्र, ६-७) । पारिभाषिक रूप में अहिंसा का भी स्वरूप तो यही है । पुनः ‘दया, संयम, लज्जा, जुगुप्सा, कपटहीनता, तितिक्षा, अहिंसा और ह्री'-इन सबों को समानार्थक कहा गया है
बया य संजमे लज्जा, दुगुंछा अच्छलणादि य । तितिक्खा य अहिंसा य, हिरीति एगट्ठिया पदा ।
(उत्तराध्ययन नियुक्ति, अ० ३) इससे यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि जैन विचार में अहिंसा का क्षेत्र कितना व्यापक है। इसकी इसी व्यापकता और धर्म के मूल में होने के कारण जहाँ कहीं धर्म के तत्त्वों को गिनाया गया वहाँ अहिंसा की चर्चा प्रारम्भ में ही की गयी। यह विषय वैदिक और अवैदिक दोनों दर्शनों के प्रसंग में समान रूप से सत्य है । उदाहरण के लिए मनु की निम्नलिखित उक्ति को लें :
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । एतं सामासिक धर्म चातुर्वण्र्येऽब्रवीत्मनः ॥ (मनुस्मृति-१०/६३) अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मिथुनवर्जनम् ।
पंचस्वेतेषु धर्मेषु सर्वे धर्माः प्रतिष्ठिताः॥ भारतीय वाङमय में इस प्रचलित कथन से सभी सुपरिचित हैं कि वेदव्यास के अठारहों पुराणों का आशय अहिंसा का ही उपदेश है
अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुग्याय पापाय परपीड़नम् ।। जैन आचार-विचार का तो अहिंसा मूलमन्त्र ही है। इसलिए स्वर्ग, मोक्ष आदि की उपलब्धि के जितने साधन हैं उनमें इसे सर्वप्रधान कहा गया है । वस्तुत: अन्य व्रतों का उपदेश भी इसी के संरक्षण के लिए किया गया है :
अहिसैषा मता मुख्या स्वर्गमोक्षप्रसाधनी ।
एतत्-संरक्षणार्थ च न्याय्यं सत्यादिपालनम् ।। (हारिभद्रीय अष्टक) जैन विचार की असल फसल अहिंसा ही है। सत्यादि पालन के नियम तो उसकी रक्षा के लिए केवल बेड़े का काम करते हैं :
अहिंसाशस्यसंरक्षणे वृत्तिकल्पत्वात् सत्यादिवतानाम् (वहीं)। कहने का आशय यह है कि धर्म के और जितने व्रत, नियम आदि हैं वे सभी किसी न किसी रूप में अहिंसा-रूपी अंगी के ही अंग हैं। सुखोपन्धि का बीज अहिंसा है
मनुष्य का जीवन सुख और दुःख दोनों का सम्मिलित अनुभव है। जब तक कोई साधारण जीवन के अनुभव के क्षेत्र में रहता है तब तक ये दोनों अनुभव अवश्यम्भावी हैं । परन्तु ऐहिक जीवन में कोई साधारण व्यक्ति 'केवली' नहीं हो सकता अर्थात् उसे अन्य व्यक्तियों की भी अपेक्षा रहती है । अरस्तू ने ठीक ही कहा था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहने का अर्थ यह है कि उसे अपने समकक्ष अन्य व्यक्तियों के साथ रहना पड़ता है । समाज की कल्पना हम प्राणिसमाज के रूप में करें तो समाज का क्षेत्र और भी व्यापक हो जाता है। इस क्षेत्र में स्थित प्रत्येक व्यक्ति को अन्य के साथ किसी न किसी सम्बन्ध की स्थापना करके ही रहना पड़ता
जैन धर्म एवं आचार
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