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उसे यह समझने की क्षमता नहीं होती कि कितने प्रतिबद्ध कर्म के लिए उसे क्या करना चाहिए अथवा उसके डंक मारने का दूसरे पर क्या परिणाम होता है। परन्तु उसी प्रकार स्वाभाविक कर्म होने के बहाने किसी हत्यारे मनुष्य को हत्या के दंड से मुक्ति नहीं मिल सकती है। परिणाम के पूर्व ज्ञान के उपरान्त ही ज्ञानसंयुक्त व्यक्ति का कोई ऐच्छिक कर्म होता है। दारुण कष्ट देने अथवा जान लेने के लिए ही कोई हिसक मनुष्य प्रहार करता है। वह अपने व्यापार के पूर्वगामी और पश्चाद्भावी परिणामों की पूरी जानकारी रखता है। स्वभावतः ऐसे ज्ञान का नहीं रहना कोई दोष नहीं है, किन्तु ज्ञानभागी होकर भी औचित्य का उल्लंघन करना अपराध और पाप है। इसी भेद के कारण पश-व्यवहार और मानव-व्यवहार में भी भिन्नता है। 'अदले का बदला' पशु-धर्म है किन्तु 'अपराध के बदले क्षमा' यह मानव धर्म है । क्षमा का उद्भव अहिंसा से ही है। इसी तथ्य पर बल देते हुए करुणावतार ईसामसीह ने शिक्षा दी थीं :
You have heard that they were told 'An eye for an eye and a tooth for a tooth? But I shall tell you not to resist injury, but if any one strikes you on your right cheek, turn the other to him too, and if any one wants to sue you for your shirt, let him have your coat too. And if any one forces you to go one mile, go two miles with him. If any one begs from you, give to him, and when any one wants to borrow from you, do not turn away (Bibie).
वास्तविक मनुष्य वही है जो मानव धर्म का पालन करता है। और, मानवधर्म के पालन का अर्थ होता है अहिंसावत का पालन । इसलिए कोई भी मनुष्य किसी प्रकार की हिसा के कर्म से सम्बद्ध हो और अधर्म अथवा अनौचित्य के दोष से बरी हो, ऐसा नहीं हो सकता।
मनुष्य को अन्य प्राणियों का सिरमौर इसलिए कहा गया है कि वह ज्ञान के विकास की दिशा में सबसे आगे है। परन्तु ज्ञान स्वयं अपने में लक्ष्य नहीं है; वह तो साधनमात्र है। यहां ज्ञान शब्द से हमारा तात्पर्य वास्तविक ज्ञान से है। वास्तविक ज्ञान वह है जो सम्यक् आस्था और निष्ठा पर आधारित हो एवं जो विशुद्ध मानवोचित चरित्र निर्माण की ओर उन्मुख करता हो । अन्तिम लक्ष्य है चरित्र निर्माण, शुष्क ज्ञान नहीं । इसलिए कहा भी गया है कि :
शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । अन्धस्य कि हस्ततलस्थितोऽपि
प्रकाशयत्यर्थमिह प्रदीपः ॥ (हितोपदेश) उक्त प्रकार को निष्ठा और ज्ञान के द्वारा जिस चरित्र का निर्माण होता है वही निःश्रेयस का भी अधिकारी होता है : सम्यज्ञान-दर्शन-चारित्राणि मोक्षमार्गः ( उभास्वामी कृत तत्वार्थ सूत्र)। परन्तु इन सवों की जड़ में है मन, बचन और कर्म की एकात्मकता। यदि हम स्वीकारते हैं और समझते भी हैं कि अहिंसा का पालन भानवधर्म है तो इसको हमें अपने दैनन्दिन व्यवहार में उतारना चाहिए। केवल मुख से ऐसा कहना कि 'अहिंसा परमो धर्मः' अथवा मात्र इसके महत्त्व को विचार के ही स्तर तक रखना पाखण्ड है-ज्ञानं भारः क्रियां बिना । यह भी एक सम्भावना है कि बहुतेरे लोग परम्परागत रूप में ही 'अहिंसा परम धर्म है' इस वाक्य को ढोते आ रहे हैं। अहिंसा के वास्तविक रूप से वे वस्तुतः अपरिचित रहते हैं। इसलिए इस बात की आवश्यकता प्रतीत होती है कि ऐसे लोगों के लिए अहिंसा की एक संक्षिप्त परिचयात्मक रूपरेखा प्रस्तुत की जाय । अहिंसा का निषेधात्मक और भावात्मक पक्ष :
महावीर स्वामी ने सभी प्राणियों के प्रति संयम रखने को अहिंसा कहा है-अहिंसा निउणा दिट्टा, सब्वभूएस संजमो (दशवकालिक, ६-८) । यहां प्राणियों के प्रति संयम का अर्थ है उनके प्रति अकुशलमूलक कार्यों से बचना । इस विचार की व्याख्या व्यासभाष्य में अधिक परिच्छिन्नता से की गयी है। इसमें सभी प्रकार से सब समय प्राणिमात्र के प्रति अनिष्ट चिन्तन के अभाव को अहिंसा कहा गया है :
तत्राऽहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहः (व्यासभाष्य २/३०)
अहिंसा हिंसा का विरोधी भाव है, अतः स्वयं हिसा के स्वरूप पर एक विहंगम दष्टि डालना आवश्यक जान पड़ता है। किसी प्रकार का प्राणिपीड़न हिंसा कहलाता है । साधारण व्यवहार में प्राणिवध को हिंसा कहते हैं। यह हिंसा है अवश्य, किन्तु इतना ही भर .
. जैन धर्म एवं आचा
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