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मैं दूसरों का नहीं हूं, और दूसरे भी मेरे नहीं हैं । इस जगत् में मेरा कुछ भी नहीं है। इस प्रकार की प्रार्थना सुन मनोविज्ञान के धनी आचार्य दीक्षोन्मुख शिष्य की पात्रता का विचार कर उसे दीक्षा देते हैं । वन में कौन दीक्षा का उत्सव करने वाला होता है ? कौन उसे दूल्हा के समान सजाकर उसकी विन्नायकी निकालता है। जिस कीचड़ से वह निकलकर आया है, पुन: उसी कीचड़ में अपना पैर नहीं देता । मात्र आचार्यवर की आज्ञा प्राप्त कर यथाजात मुद्रा का धारी होता है तथा घास-फूस के समान दाढ़ी-मूंछ और सिर के केश उखाड़ कर फेंक देता है। इस नवदीक्षित शिष्य को आचार्य तथा संघस्थ मुनि अल्पसंसारी समझ बड़े स्नेह से साथ में रखते हैं तथा उसके ज्ञान और वैराग्य की वृद्धि का निरन्तर ध्यान रखते हैं।
वह नवदीक्षित साधु--पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रिय-दमन, छह आवश्यक और शेष सात गुण-इन अट्ठाईस मुल गुणों का पालन करता हुआ निरन्तर सावधान रहता है । भूख, प्यास, सरदी, गरमी तथा डांस, मच्छर आदि का परीषह सहन करता हुआ चरणानुयोग की पद्धति से पाणि-पात्र में आहार करता है । मधुकरी, गोचरी, अक्षभ्रक्षणी, गर्तपूरणी और उदाराग्नि-प्रशमनी इन पांच वृत्तियों का पालन करता हुआ अनासक्तिपूर्वक आहार ग्रहण करता है। जो तीर्थंकर गृहस्थावस्था में सौधर्मेन्द्र के द्वारा प्रेषित आहार करते थे, वे भी दीक्षा लेने के पश्चात् इसी मनुष्य-लोक का आहार ग्रहण करते हैं। दिगम्बर मुद्राधारी मुनि यद्यपि निरन्तर जागरूक रहता है, अपने व्रताचरण में सावधान रहता है, तथापि प्रमाद या अज्ञानवश कदाचित् कोई दोष लगता है तो निश्छल भाव से गुरु के आगे उसकी आलोचना कर गुरु द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त को स्वीकृत करता है । जिनागम में ऐसे साधु को ही 'श्रमण' कहा है । कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रवचनसार में श्रमण का लक्षण इस प्रकार कहा है
इहलोगणिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्मि ।
जुत्ताहारविहारो रहिदकसायो हवे समणो ॥२६॥ (चारित्राधिकार : प्रवचनसार) जो मुनि इस लोक में विषयों से निःस्पृह और परलोक-देवादि पर्यायों में अप्रतिबद्ध होकर योग्य आहार-विहार करता है तथा कषाय से रहित होता है, वही श्रमण कहलाता है । श्रमण के पास मात्र शरीर ही का परिग्रह रहता है और उस शरीर में भी वह ममता से रहित होता है । श्रमण की ज्ञान-साधना को वृद्धिंगत करते हुए कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं
एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु ।
णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ॥३२॥ (चारित्राधिकार : प्रवचनसार) जो चित्त की एकाग्रता को प्राप्त कर चुका है, वही श्रमण कहलाता है । एकाग्रता उसी को प्राप्त होती है जिसे पदार्थों का दृढ़ निश्चय है और दृढ़ निश्चय आगम से होता है इसलिए साधु को आगम के विषय में चेष्टा करना उत्कृष्ट है, इसका कारण यह है कि जो साधु आगम से हीन होता है वह निज और पर को नहीं जानता और जो निज-पर के विवेक से रहित है वह कर्मों का क्षय करने में असमर्थ रहता है। इसी कारण कुन्दकुन्द स्वामी ने साधु को 'आगमचक्खू साहू' कहा है, अर्थात् साधु का चक्षु आगम ही है। इतना ही नहीं, उन्होंने तो यहां तक लिखा है
आगमपुवा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स ।
णत्थीदि भणदि सुत्तं असंजदो होदि किध समणो॥ ३६॥ (चारित्राधिकार : प्रवचनसार) जिसकी दृष्टि-श्रद्धा आगमानुसार नहीं है उसके संयम कैसे हो सकता है, और जिसके संयम नहीं है वह श्रमण कैसे हो सकता है ?
कोई आगम-ज्ञान को ही सर्वस्व समझ ले और शरीरादिक पर-पदार्थों की मूर्छा को नष्ट न करे, तो उसके लिए संबोधित करते हुए आचार्यवर कहते हैं
परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो।
विज्जदि जदि सो सिद्धि ण लहदि सव्वागमधरो वि ॥३६॥ (चारित्राधिकार : प्रवचनसार) जिस साधु के शरीरादि पर-पदार्थों में परमाणुमात्र भी मूर्छा–ममेदंभाव-विद्यमान है, वह समस्त आगम का धारी होकर भी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। श्रमण की परिणति से माध्यस्थ भाव टपकता है । देखिये, कितना सुन्दर कहा है
समसत्तु-बंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो।
समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥४१॥ (चारित्राधिकार : प्रवचनसार) जिसके लिए शत्रु-मित्र समान हैं, जो सुख और दुःख में समता-भाव रखता है, प्रशंसा और निन्दा में समान रहता है, पत्थर के ढेले और सुवर्ण जिसे समान प्रतिभासित होते हैं और जो जीवन-मरण में भी समता-भाव को सुरक्षित रखता है, वही श्रमण कहलाता है।
जैन धर्म एवं आचार
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