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चतुर्विशतिस्तव -ऋषभादि से महावीर-पर्यन्तहुए चौबीस तीर्थंकरों का नाम-निरुक्तिपूर्वक-नामों की सार्थकता को प्रकट करते हुए --जो गुणानुवाद किया जाता है तथा पूजा करते हुए मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया जाता है, इसका नाम चतुर्विशतिस्तव है।'
इस चतुविशतिस्तव को साधु किस प्रकार से करे, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि दोनों पांवों के मध्य में चार अंगुलों का अन्तर करके स्थित होता हुआ, शरीर व भूमि का प्रतिलेखन करे। इस प्रकार शरीर व भूमि को शुद्ध करके, आकुलता से सर्वथा रहित होता हुआ हाथों को जोड़, निर्मल प्रणामपूर्वक चतुर्विंशतिस्तव को करना चाहिए।
वन्दना-अर्हन्त प्रतिमा, सिद्ध प्रतिमा तथा जो तप में, श्रुत में एवं अन्य ज्ञानादि गुणों में श्रेष्ठ हैं उन्हें और विद्यागुरु व दीक्षागुरु, इन सबको कायोत्सर्ग व सिद्धभक्ति-श्रुतभक्ति आदि के साथ जो मन-वचन-काय-की शुद्धिपूर्वक प्रणाम किया जाता है, उसे वन्दना कहते हैं।'
मूलाचार के आवश्यक अधिकार में इस वन्दना 'आवश्यक' की विस्तार से प्ररूपणा की गई है। वहां इस प्रसंग में कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म किसे करना चाहिए, तथा किसका, किस प्रकार से, कहां और कितने बार करना चाहिए, उसमें कितनी अवनतियां व कितने सिर झुकाकर प्रणाम किये जाते हैं, कितने आवतों से वह शुद्ध होता है, तथा कितने दोषों से रहित होता है, इस सबका स्पष्टीकरण किया गया है । संक्षेप में इतना समझा जा सकता है कि जो पांच महाव्रतों से विभूषित है, धर्मानुरागी है, आलस्य से रहित है, अभिमान से विहीन है तथा दीक्षा में लघु है, वह कर्म-निर्जरा का इच्छुक होकर सदा ‘कृति कर्म' को करता है। उस निर्जरा के लिए आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक (संघसंचालक), स्थविर और गणधर आदि का कृतिकर्म (वन्दना) किया जाता है । व्रत-विहीन माता, पिता, गुरु, राजा, पाखण्डी, श्रावक व सूर्य-चन्द्रादि देव उनकी, तथा पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, अवसंज्ञ या अबसन्न और मृगचरित्र-इन पांच पार्श्वस्थ मुनियों की भी वन्दना नहीं करनी चाहिए। जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय - इनमें निरन्तर उपयुक्त रहते हैं, उनकी वन्दना करनी चाहिए। आचार्य आदि के साथ ही, जो शील-आदि गुणों के धारकों का गुणानुवाद करने वाले हैं, वे भी वन्दनीय हैं । इसके अतिरिक्त जो व्याक्षिप्त ध्यान आदि से व्याकुल, विधेय अनुष्ठान की ओर से विमुख, अथवा पृष्ठभाग से स्थित हैं, और जो प्रमाद से युक्त हैं, ऐसे संयत की भी कभी वन्दना नहीं करनी चाहिए। आहार व नीहार (मल-मूत्रादि) करते समय भी कोई वन्दनीय नहीं होता। इसके विपरीत जो शुद्ध भूमि में पद्मासन से स्थित है, अपनी ओर मुख किये है तथा उपशान्त (स्वस्थ-चित्त) है उसकी बुद्धिमान् को विधिपूर्वक वन्दना करनी चाहिए।
प्रतिक्रमण
___ आहारादि द्रव्य, शयनासनादि क्षेत्र, पूर्वाह्न-अपराह्न आदि काल और मन की प्रवृत्ति रूप भाव, व इनके विषय में जो अपराध किया गया है उसके प्रति निन्दा व गीपूर्वक मन-वचन-काय से प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करते हुए उसे शुद्ध करना, इसका नाम 'प्रतिक्रमण' है। स्वयं जो दोषों को अभिव्यक्त किया जाता है, उसका नाम 'निन्दा' है। आलोचनापूर्वक आचार्य-आदि के समक्ष किये गये दोषों को प्रकट करना, यह 'गी' का लक्षण है। निन्दा आत्मप्रकाश रूप, और गहरे पर-प्रकाश-रूप होती है, यह दोनों में भेद समझना चाहिए।
यह प्रतिक्रमण दैनिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ के भेद से सात प्रकार का है। उत्तम अर्थ के लिए जो जीवन-पर्यन्त चार प्रकार के आहार का परित्याग किया जाता है, उसे उत्तमार्थ प्रतिक्रमण समझना चाहिए।
प्रतिक्रमण करनेवाला कैसा होना चाहिए, प्रतिक्रमण का स्वरूप क्या है, और प्रतिक्रमण के योग्य क्या होता है, इसका 'प्रतिक्रमण' आवश्यक के प्रसंग में विस्तार से निरूपण किया गया है।
प्रत्याख्यान-तीनों कालों के आश्रित नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन छह से सम्बद्ध अयोग्य (जो सेवन के योग्य नहीं हो) का मन-वचन-काय व कृत-कारित-अनुमत इन नौ प्रकारों से परित्याग करना-इसे प्रत्याश्यान कहते हैं।
१. मूलाचारवृत्ति, १/२४ २. वही, ७७६ ३. वही, १/२५ ४. वही, ७७५-११४ ५. बही, ७/६३-१०१ ६. वही, १.२६ ७. वहीं, ७.११६ ८. वही, ७/११७-३४ ६. वहीं, १२७
जैन धर्म एवं आचार
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