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the Hinduism it does not prefer the dissolution, of the self into the infinity of Brahman or God, but recommends its upliftment to the most perfect and fully developed state where all the negative ideas of anger, egotism, hypocrisy and greed are completely set aside. Thus according to Jainism passions can be overcome neither by renouncing it altogether nor by unifying it with Absolute or God but by raising and elevating the individual soul to the transcendental state, Jainism avoids the non-entity of the soul on the one hand and unity of the souls on the other hand and accepts the equality of the souls. The eradication of passions is, therefore founded on the principle of equalization and elevation which gives the lofty idea of the peaceful coexistence of liberated souls and reminds us of the Kingdom of ends of Kant.
सामायिक भावना ममत्ति पडिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्टिदो। आलंवणं च मे आदा अवसेसाई बोसरे ॥ एगो मे सस्सदो अप्पा णाण-दंसण-लक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोग-लक्खणा । णिदामि णिदणिज्जं गरहामि य जं च मे गरहणीयं । आलोचेमि य सव्वं सब्भंतर-बाहिरं उवहिं ॥ रागेण व दोसेण व जं मे अकदं हुयं पमादेण । जो मे किचि वि भणिओ तमहं सव्वं खमावेमि ॥ संसारचक्क-वालम्मि मए सव्वे वि पोग्गला बहुसो। आहारिया य परिणामिदा य ण य मे गया तित्ती ।। तिण-कट्टण व अग्गी लवण-समुद्दो पदी-सहस्से हिं। ण इमो जीवो सक्को तिप्पेदं काम-भोगेहि ।। णाणं सरणं मझं दंसण-सरणं च चरिय-सरणं च । तव संजमं च सरणं भगवं सरणं महावीरो ॥ जा गदी अरिहंताणं णिद्विदट्ठाण जा गदी। जा गदी वीद-मोहाणं सा मे भवदु सस्सदा ॥ जं च काम-सुहं लोए जं च दिव्वं महासुहं । वीयराय-सुहस्सेदं शंत-भाग ण अग्घदे ॥
___ मैं निर्ममत्व होकर ममत्व भाव का त्याग करता हूँ । अब आत्मा ही मेरा एकमात्र आलम्बन है। शेष समस्त अपनत्व के भावों का परित्याग करता हूँ।
ज्ञान और दर्शन गुणों से युक्त यह मेरा एक आत्मा ही तो शाश्वत है, अनादि-निधन है। शेष समस्त भाव तो बाहरी हैं जिनका सदंव संयोग-वियोग होता रहता है। मैं निन्दनीयकी निन्दा और गर्हणीयकी गर्हणा करता हूँ। मैं अपनी समस्त बाह्य और आभ्यन्तर उपाधियों की आलोचना करता हूँ।
राग के अथवा द्वेष के वशीभूत होकर जो कुछ जानबूझ कर न करने पर भी प्रमाद से बन पड़ा हो अथवा अनुचित वचन मुख से निकल गया हो उस सबकी मैं क्षमा चाहता हूँ।
__ इस संसाररूपी चक्रवाल में जितने पदार्थ हैं उनका मैंने बहुत बार संग्रह किया और उपभोग किया तो भी उनसे 1 मेरी तृप्ति नहीं हुई। । जिस प्रकार ण और काष्ठ से अग्नि को तथा सहस्रों नदियों से समुद्र को तप्त नहीं किया जा सकता इसी प्रकार काम-भोगों से इस जीव की तृप्ति नहीं की जा सकती।
मेरे लिये ज्ञान ही शरण है, दर्शन शरण है और चारित्र शरण है। तप और संयम भी शरण है तथा भगवान् | महावीर शरण हैं।
____ जो गति अरहन्त भगवन्तों की, जो गति कृत-कृत्य सिद्धों की तथा जो गति मोह-विजयी वीतरागों को प्राप्त हुई वही शाश्वत मोक्ष की गति मुझे भी मिले।
लोक में जो कुछ काम और सुख है तथा स्वर्गादि दिव्य लोकों में जो महासुख है वह सब मिलाकर वीतरागको प्राप्त होने वाले निर्वाण-सुख के अनन्तवें भागके बराबर भी नहीं होता।
-डॉ० हीरालाल जैन द्वारा संकलित एवं सम्पादित 'जिनवाणी' से साभार
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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